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मीमांसा और मीमांसक।

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बहुत वर्ष बीते हमारे पड़ोस में एक प्रसिद्ध मीमांसक रहा करते थे।ब्राह्मण कुल से ही थे।उनका पोता हमारे मित्रमंडली का हिस्सा था।बताया करता था बाबा बहुत ज्ञानी है।मीमांसक है।वेदों का ज्ञान है।सब शब्द समझ आ जाते थे।मगर मीमांसा और मीमांसक कभी समझ नही आया।जीवन मे जिसकी ज्यादा जरूरत न हो उसकी तरफ आकर्षण कम होता है।सो भूल गए पूछना भाई मीमांसक क्या होते है।आज दिनों बाद उनकी याद आयी तो मीमांसा का विषय खंगाला।लीजिये पढ़िये....
मीमांसा शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। वेद के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है। कर्म तथा ज्ञान के विषय में कर्ममीमांसा और वेदान्त की दृष्टि में अन्तर है। वेदान्त के अनुसार कर्मत्याग के बाद ही आत्मज्ञान संभव है। कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही हो सकती है। परन्तु कर्ममीमांसा के अनुसार मुमुक्षुजन को भी कर्म करना चाहिए। प्रकार मीमांसा के दो प्रकारों की व्याख्या की गई है- कर्ममीमांसा ज्ञानमीमांसा कर्ममीमांसा तथा पूर्वमीमांसा के नाम से अभिहित दर्शन 'मीमांसा' कहा जाता है। ज्ञानमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध दर्शन 'वेदान्त' कहलाता है। मीमांसा दर्शन पूर्णतया वैदिक है। 'मीमांसते' क्रियापद तथा 'मीमांसा' संज्ञापद, दोनों का प्रयोग ब्राह्मण तथा उपनिषद ग्रन्थों में मिलता है। अत: मीमांसा दर्शन का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से सिद्ध होता है।  
मीमांसा वह गम्भीर मनन और विचार है जो किसी विषय के मूल तत्त्व या तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है।किस बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय किया या परिणाम निकाला जाता हो।छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन जो मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था. विशेष पूर्व मीमांसा के कर्ता जैमिनि और उत्तर मीमांसा के कर्त्ता बादरायण कहे जाते हैं।दोनों के विवेच्य विषय एक दूसरे से बहुत भिन्न है।पूर्व मीमांसा में मुख्यतः वैदिक कर्मकांड का विवेचन है, इसीलिए इसे कर्म मीमांसा भी कहते हैं।इसमें वेदों के यज्ञपरक संदिग्ध स्थलों का विचार करके उनका स्पष्टीकरण किया गया है इसमें आत्मा,जगत्,ब्रह्म आदि का विवेचन नहीं है, और वेदों तथा उसके मंत्रों को ही नित्य तथा सर्वस्य माना है, इसीलिए इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में होती है।इसी लिए इसे कर्म मीमांसा भी कहते हैं. इसके विपरीत उत्तर मीमांसा में  ब्रह्म अथवा विश्वात्मा का विवेचन है,और इसीलिए यह वेदांत दर्शन कहलाता तथा पूर्व मीमांसा से भिन्न तथा स्वतंत्र दर्शन माना जाता है।आजकल मीमांसा दर्शन बहुत विरले ही पढ़ते है।पर  आज मीमांसा को समझा सही से।ज्ञान दर्शन की हर शाखा आप को कुछ सीखा के हो जाती है।ये भी तजुर्बा अच्छा रहेगा।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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