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अकेले हम चले जाते हैं मंजिलों की परवाह किसे।
ये वीरानियाँ भी जो आती है हम तो गुजर जाते है।।
किसी को याद कर के इन वीरानियों में मुस्कुरा लेते है।
राहें तो तन्हा वक़्त से थी यादों ने उनकी इसे नाकाबिल कर दिया।।
कभी किसी के साथ कि जुस्तजू ही बहुत थी।
तनहाइयों ने इस जुस्तजू को ही कहीं दफन कर दिया।।
अकेले चले तो बड़े गरूर से थे के निकल जायेंगे कही।
जो न हुआ तो भी वक़्त से हालात को मनवाएँगे कही।।
हम तो क्या तन्हा होते अपनो ने ही तन्हा हमे किया कही।
जिससे उम्मीद थी वो ही फरेब दे गया हमे कही।।
हमनें कब चाहा था इस भरी दुनिया मे अकेले हो कहीं।
ये बदनसीबी ही थी के जिसे चाहा बीच रास्ते तन्हा कर गया कभी।।
कितने तो करीब आये और दूर हो गये ये सभी।
हम तो शायद तन्हा थे अपनो की प्यास जगाई सब ने कभी।।
हम ढूंढते रहे अक्स अपना उनमे और वो ठुकरा के चले गये।
फिर यादों ने हमको तनहाइयों में जा मगरूर बना दिया।।
तनहाइयों में उन्हें ही खोजते रहे और बस उनसेे दूर हो लिये।
यादे सिमट सिमट गई और हम भी भूल चले उन छोड़ी हुई गलियों को कही।।
तन्हा हुए इतने की हम छोड़ चले सबको।
कोई आवाज़ भी दे तो सुनाई नही देती अब कहीं।।
कोई पास भी आये तो अब घबराहट सी होती है।
कोई अपना कह भी दे तो पराई और पराई से बात लगती है।।
हर वक़्त आब अकेले मन रहने को आतुर होने लगा है।
न जाने किसी की परछाई से भी अब डर लगने लगा है।।
अब क्या कहें अकेले हम चले जाते हैं और मंजिलों की परवाह किसे।
ये वीरानियाँ भी जो आती है हम तो गुजर जाते है।।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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