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मन बुद्धि का राजा है।
मन कहता बुद्धि उस और सधती जाती।
मन जो कहता बुद्धि मान करती जाती।
मन चंचल होता बुद्धि मचला जाती।
मन भटकता बुद्धि अपना समझ लोटा लाती।
मन को इसकी फिर भी न समझ आती।
बुद्धि कुछ बोलती तो मन खौल जाता।
बुद्धि समझाती मन डोल जाता।
बुद्धि मन का अन्तरदविंद सदैव चलता रहता।
कभी मन हावी होता कभी बुद्धि खेल दिखाती।
दोनो फिर बातें कर अधिकार मन को सौंपते।
कुछ बुद्धि ठंडी होती कुछ मन को आराम मिलता।
कुछ मन की बुद्धि सुनता कुछ बुद्धि मन की तामील करती।
जब दोनो की बात मिलती तब दोनो हंसते।
एक दूसरे से संग मिलते और फतह करते चलते।
मन फिर मचलाता और बुद्धि फिर तोलती।
एक अदद मुस्कुराहट कशमकश में बदलती।
अब बुद्धि हावी होने को होती फिर मन भावो का भँवर फेकता।
बुद्धि फसती जाती मन मे डूबने लगती।
जो अभी तक ज्ञान का अधिकारी था फिर एक बार हार जाता।
बुद्धि ही कहती मन तू ही बुद्धि का राजा है।
मन कहता बुद्धि उस और सधती जाती।
येही अनवरत है जारी।
सब होनी इसी की मारी है।
जय हिंद
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शुभ रात्रि।
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