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क्रोध हो रहा है क्रोध हो रहा है।
अपनी सोच पे क्रोध हो रहा है।
अपनी इच्छाओं पे क्रोध हो रहा है।
अपनी जुबान पे क्रोध हो रहा है।
अपनी शब्दों पे क्रोध हो रहा है।
अपनी अकर्मण्यता पे क्रोध हो रहा है।
अपनी नाकामियों पे क्रोध हो रहा है।
अपने विश्वास पे क्रोध हो रहा है।
अपने निर्णय पे क्रोध हो रहा है।
अपने निश्चय पे क्रोध हो रहा है।
अपने लगाव पे क्रोध हो रहा है।
अपने झुकाव पे क्रोध हो रहा है।
अपने वायदे पे क्रोध हो रहा है।
अपने सहयोग पे क्रोध हो रहा है।
अपने व्यवहार वे क्रोध हो रहा है।
अपने मृदु भाषा पे क्रोध हो रहा है।
अपने मुखालते पे क्रोध हो रहा है।
अपने धम्ब पे क्रोध हो रहा है।
हां बहुत क्रोध हो रहा है।
जम के ये मुझपे बरस रहा है ।
मुझे पूरा गिराने को हो रहा है।
हां बहुत क्रोध हो रहा है।
ये क्या लिखते लिखते ही पी गया हूँ।
कौन है जो मेरी और ही रहेगा।
अकेला था अकेला हूँ अकेला ही रहूंगा।
चल छोड़ किसके कर्मो का लेखा लिखता है।
जिंदगी थोड़ी सी ही बची है।
थोड़ा और पी चल शांत हो ।
कल की तुझे क्यों पड़ी है?
हर एक शख्श अपने कर्मो का भागी है।
चल छोड़ तुझे किसी की क्यों पड़ी है।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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