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कभी कभी बहुत आंदोलित होता हूँ मैं।
व्यवस्थाओं के शिखर का बोझ ढोता हूँ मैं।
हर और फैले मैले को शायद ढोता हूँ मैं।
कभी नगवार गुजरे तो बेमन होता हूँ मैं।
हर और अहंकार भयं की फैली ज्वाला है।
हर इंसान अपने मे दुबक जीवन जीता है।
खोखले संदेशों की माला घूमता पिरोता है।
झूठ कपट धोखों को ओढे रहता फिरता है।
हर शख्श अपने झूठ में सच को ढूंढता फिरता है।
महान बनने को फिरता है पर सच बोलने से डरता है।
आनंद की अनुभूति में दुख की बेकदरी करता है।
वक़्त लौट के आता है इसकी फिक्र कब करता है।
फरेबों ने जिंदगी झूठ की इमारत बना के रखी है।
हर कोने में जिसके जिंदगी बुझी सी छुपी पड़ी है।
मुस्कराता हूँ मैं शायद अपने सच को छुपाते हुए।
कोशिश भी की शायद डर के शायद गुम हो गया मैं।
बस एक पहचान को ढूंढ रहा हूँ मै जो मिलती नही।
इतनी दलदल भर ली है के ढूंढने को पैर चलाता हूँ औऱ डूब जाता हूँ ।
कहीं तो ईश्वर कोई एक सहारा दे दे मुझे।
पकड़ जिसे मैं भी बाहर आ सकूं कुछ दिन सच की जिंदगी जी भर जी सकूं।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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