💐इंसानी बस्तियां हिंदुस्तान में तेज़ी से बढ़ती जा रही है। जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में इंसानों और जंगली जानवरों का संघर्ष नया रूप ले बड़ रहा है। जब भी आप हवाई यात्रा पे हो और मौसम साफ हो और खिड़की वाली सीट मिले तो ध्यान से नीचे देखिये आप को इंसानी बस्तियां का क्या विस्तार हुआ है नज़र आएगा। जंगल कम बस्तियां ज्यादा नज़र आएंगी। सोचो तो एक खतरनाक सी स्तिथि बन रही है। आज ये लिख क्यों रहा हूँ? आज सुबह बंदरों ने घर पे दरवाज़े खुले देख हमला कर दिया। फ्रिज खोल खाने पीने का सामान ले उड़े। घर के ऊपर जा नलका खोल दिया। पानी बह निकला। नीचे निकासी में पानी के बहने आवाज़ आयी तो ऊपर जा कर देखा । बंदरों ने नल खोल रखा था पानी पी रहे थे।उसपे पे बेठे थे। सो उन्हें देख कर डराने की कोशिश की जालीदार दरवाज़े से। तो उन्होंने जोर दार हमला कर दिया दरवाज़े पे। बहरहाल हम अंदर थे तो घबराने वाली बात नही थी ।पर ये हो क्या रहा था? इंसानों और जानवरों के बीच में बढ़ता दुय्न्द और संघर्ष। भगाने के यत्न किये। पटाखे फोड़े तो भाग खड़े हुए।पर ये हो क्या रहा है? फरीदाबाद की कहानी लिख रहा हूँ लखनऊ की सोच रहा हूँ। वहां भी ये ही स्तिथि है। हुआ ये है जनसंख्या वृद्धि जारी है। आवास की जरूरत ने शहरों का विस्तार मनमाने तरीके से कर दिया है। जानवरों के प्राकृतिक निवास उजड़ गए है।पानी के सरौते सूख गये है। गांव कुछ गंदी बस्तियों में तब्दील हुए जाते है। तो बेचारे जानवर जाए कहाँ। पहले लोग फलों के वृक्ष लगाया करते थे आज कल छाया के लगते है। प्राकृतिक आवास नष्ट हो गए है। जानवरों के लिए खाद्य पदार्थों की कमी हो गयी है।पानी कहीं नजर नही आता अलबत्ता गंदे नाले शहर में हर तरफ है। जो इंसान नही पी सकते तो जानवर कैसे पियेंगे। बड़ी विडंबना की स्तिथि बन गयी है । इनके घर उजाड़ हमने अपने बसा लिए। उनके सुख छीन हम सुखी हो रहे। उनके खाद्य छीन हम अपना पेट भर रहे। कुछ ऐनजीओ जानवरों के उथान के नाम अपना पेट भर दुकान चला रहें । बंदरों की आबादी हमसे तेज़ बढ़ती है। पर उनके बसने के साधन व्यवस्थाएँ कहाँ?सहसा संघर्ष बड़ रहा है। ये लूट लड़ाई पे आमादा है। किंचित येही स्तिथि देश में इंसान की अलग रूप में हुई जाती है। आये बगाये कोई न कोई शिकार हो रहा है। हमे कुछ रोकना होगा। उनके या तो प्राकृतिक आवास लौटाने होंगे। या उनको भी बस्तियां देनी होगी। साथ रह नही सकते। ये नही की हम कुछ कर नही सकते। साथ मिल के सोचे तो कुछ फलदार पेड़ छोटे छोटे जंगल फिर से आबाद किये जा सकते है। जहां उनके जीवन में हमारी कोई दखल अंदाज़ी हो न और वे अपने आवास में सुरक्षित और खुश रहे। उनका पनपना इंसानों के बेहतर जीवन का भी आभास हो सकता है।चलिये कुछ आज से सोचा जाए और किया जाए।मैंने कुछ सोचा है। कर लूं तो बताऊंगा जरूर। आप भी सोचिये।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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