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Showing posts from July, 2017

विकृत से उत्कृष्ट की यात्रा।

💐आज कल समाज में अजीब सा आक्रोश है। जहां तहां बहुत अजीब से अत्यंत भावनात्मक अहम टकरा रहे है। समाज कुछ अपनी सहनशीलता खोता जा रहा है। अजीब सी स्तिथि तैयार हो रही है या बनती महसूस हो रही है। हर किसी को किसी से द्वेष उग्रता लिए हुए है। ये उग्रता बहुत बेमानी जंग को दावत पे बुला के रखी है। जहां तहां आप को किसी न किसी गुमा मैं लोग डूबे फड़ें मारते मिल जायेंगे। किसी को पैसे का गरूर है। किसी को ताकत का ।किसी को राजनीति का ।किसी को सरकारी अफसर होने का ।और तो छोड़िए पुलिस के सिपाही को सबसे ज्यादा रौब दिखाने का।माँ बाप को बच्चों पे रौब जमाने का। पड़ोसी को सदा आप से ज्यादा समझदार होने का। पार्क में शाम को घर की जेल से छूटे बुजुर्गों को सब से ज्यादा अक्ल होने का।ये सब एक असहनशील रवैया अख्तियार किये हुए है। सब को अपना प्रभुत्व दिखाना है। अगर आप न मानो तो बिन बुलाये दुनिया मुफ्त में आप की दुश्मन। हां जी कर के निकल जाओ तो आप गधे वो समझदार घोड़े। कहने का मतलब हैं रहेंगे आप से दो कदम आगे भले ही हो किसी लायक भी नही। भला रास्ता क्या बचता है ऐसे बदलते समाज में? सबसे पहले देश हित फिर परिवार हित फिर समाज हित और अ

और मुस्कुराना तो है ही।

💐क्या कहें किससे कहें।सब तरफ अपने आप से सब मशगूल हैं ।सब इस तरह की हम कमोबेश काम से ही नज़र आतें है। दौड़ती है जिंदगी कुछ इस रफ्तार से के हम पीछे से छूटे जाते है। कहें दिल की किससे के सब अपने में ही उलझे जाते हैं। जी भरें किससे की सब पहले ही खाली नज़र आतें है। जिधर नज़र उठती है एक अजीब सी दौड़ लगी है हसरतों की। हम उसमे कहीं कम ही नज़र आतें है। कहीं हम चाहे भी के कोई बिना प्रश्न हमसे हमारे साथ कुछ कदम भर तो चले। चलने से पहले ही इतने प्रश्न लिए खड़े हैं की सब  उनकी आंखों में देख के हम अकेले ही चले जाते हैं। फिर सोच के के क्यों उलझें किस लिए उलझें सब बातों पे अपनी पर्दा डाल देते हैं हम। कभी किसी की सोच से आगे निकलने की कोई तमन्ना नही। बहुत से तमगे सब दिए जाते है। हम सोच के हैरां है कि कमबख्त इतने असहाये है हम। जिसे देखो चपत लगा के निकल जाता है। हम ठगे से यू ही बस यूं ही देखते रह जाते है। कुछ अपने कर जाते है बाहर की तो रहने ही दो। दुनिया का अंदाज़े बयान ही और है। हम पहले भी समझने में नाकाम थे आज भी नाकाम है। फिर सोचते हैं कि काहे हम उलझते है। ध्यान लगाओ बचे दिनों पे जिंदगी तो रफ्तार से निकली जाती

कुछ टूटती उम्मीदें

💐जीवन में कई बार प्रस्थितियाँ आप की समझ के बाहर होती है। सब कुछ बेहतर देने के बाद बेहतर मिलना मुश्किल सा महसूस होता है। परिणाम आशा अनुरूप हर बार नही मिलते। अपनो से न मिले तो ज्यादा महसूस होता है। भावनात्मक रिश्ते कई बार कटोचते से महसूस होते है। हम कही और तो वो कहीं और चल रहे होते है। इस समय भावनाओ में बहना भी कुछ ठीक नही होता। प्रस्थितियाँ बहुत बार आप के बस में नहीं होती। आप उनपे नज़र तो रख सकते हो पर परिणाम अपेक्षित हो ये उम्मीद नही की जा सकती। किया क्या जाये? बहुत से और प्रश्न उठने संभाविक हो जाते है। और शायद कुछ चीज़े वक़्त पे भी छोड़ देनी चाहियें। पिछले दो तीन साल से कुछ ऎसी ही स्तिथियाँ प्रस्थितियाँ मेरे आस पास भी बन रही थी। मेरे अपनो की। कुछ चीजों में गंभीरता लाने में मैं नाकाम रहा। कुछ आकलनों में सही भी नही रहा। शायद उम्मीदें ज्यादा बांध ली हों। जिनसे बांधी वे कहीं और ही मंजिल तलाश रहे हो।कुछ मौका ढूंढ़ रहे हो आँख से बच के निकलने का। चेहरे का कृत्रिमपन नही पड़ पा रहे थे। कुछ ठगा सा महसूस हुआ। हम प्यार में शायद कुछ ज्यादा ही इशारों को नज़रंदाज़ कर गये। कुछ सख्त तो होना ही था। सो आज एक फ

कुछ अपने लिए भी

💐जीवन के क्रम में हम अपने आपसे बहुत सीखते और बहुत से सकारत्मक और नकारत्मक बदलाव अपने अंदर लाते रहते है। हम बात सकारत्मक बदलावों पे ही करेंगे। क्या आप अपने को रोज़ कुछ वक्त देते हो? फिर सुनिये अपने को केवल अपने को। 24 घंटे का दिन है। हमारी उम्र में नींद भी 4 से 6 घंटे की होती है।18 घंटे कुछ न कुछ सोच विचार काम कर्म खेल गप्प शप्प टीवी पूजा पाठ इत्यादि में हम अपना समय बिताते हैं। कहना ये है बहुत से कामों में  दिन भर उलझे रहते है। जाग खुलने के बाद से जुट जाते हैं काम पे। दिनचर्या दैनिक निवृति से शुरू हो स्नान नाश्ते यात्रा आफिस व्योपार फिर यात्रा फिर रात का खाना और टीवी देख के सो जाना  कर समाप्त हो जाती है। ज्यादातर रोज़ ये ही होता है। घर में बीवी बच्चे माता पिता भाई बहन भी होते है। जो कुछ  आप का समय चाहते है। कुछ ये दे पाते हैं और कुछ दिमाग के बोझ के मारे अपने में ही उलझे रहते हैं।और अपना कीमती समय अपनी फिजूल की उलझन में उलझाए रखते हैं। वक़्त होकर भी गुजर रहा है उड़ रहा है। खुली आँखों के सामने से पल मिनट सेकंड घंटे हवा हो जाते है। हम अपनी स्तिथि बदल नही पाते। ज्यादतर ऐसा क्यों होता है? बड़ा स

जानवर या इंसान

💐आज नेपाल बिहार की इस यात्रा के अंतिम चरण में हूँ। कल बीरगंज से बापसी में नेपाल सीमा से भारत की सीमा में प्रवेश करना था। हम  बहुत कहते हैं कि भारत नेपाल से बहुत आगे है और दम भरते भी है अपने बड़े होने का। सीमा पे नेपाल भारत एक से ही दिखते है। बेहद खराब रोड। एक टूटे फूटे रोड़ से दूसरे टूटे फूटे रोड पे सफर। उछलती कूदती झूलती गाड़ी की फ्री में सफारी। बीरगंज से नारायणी नदी का पुल पार और आप भारत में। ट्रक गाड़ियों पे कस्टम की जबरदस्त नज़र। तांगे ई रिक्शे और साईकल रिक्शे पे कोई रोक नही। बड़ा अजीब सा माहौल है। बहरहाल गड्ढों को नापती कूदती गाड़ी भारत की सीमा के गड्ढों में प्रवेश कर गयी।अपने भारत की सीमा में प्रवेश करते ही रक्सौल लाइन का फाटा आता है। लंबी ट्रक रिक्शों तांगों की लाइन।15-20 मिनट के बाद फाटक खुला। में जिज्ञासा वश गाड़ी से उतर फाटक के पास खड़ा हो गया। नज़र इधर उधर घुमाने लगा। देखा खच्चर तांगे में जुटे हैं। कुछ तांगे सवारी लिए थे। सहसा वजन कम था। कुछ तांगे फल सब्जियां और दूसरा सामान लिए थे। मरियल खच्चर दिख रहे थे। जुबान मुँह से निकल के लटक रही थी। उनका चेहरा देख के उनकी स्तिथि का अंदाजा लगाया

बिहार एक नज़र

💐दो दिन से बिहार नेपाल यात्रा का दौर है। कल जहां गोलगप्पे खाये थे वहीं ढाबे पे परवल आलू का भजिया बनवाये और खाये थे। बहुत स्वादिष्ट बनाया था आनंद आ गया था। भारद्वाज ढाबा है अरिराज में। जब वो खाना तैयार कर रहा था तो हम फ्रिज देख रहे थे। उसमे मिट्टी की हांडी में दही जमाया था। लार सब की टपक गयी। खाना छक के खाया। स्वाद आ गया जी। अब बारी दही की थी और खा के और स्वाद आ गया ।और ढाबे की वाह वाह हो गई। सब को आनंद आ गया। खाना सरसों के तेल में बना था। सो बिहार के खाने का पूर्ण आनंद रूप था।  अंडे में चने की दाल भी बनवाई गई थी। मेरी सादी ही थी। खाना स्वादिष्ट था सो अगले दिन यानी आज हमें लौटना था। ढाबा रास्ते में सही स्थान पे था। सही बोले तो आगे या पीछे कुछ अच्छा था भी नही। तो चलते चलते आज का आर्डर वही सुना दिया। करेले आलू की भाजी दाल दही। भाई ने बिल फाड़ा और उसपे लिखे नंबर पे काल करने को बोला। जब पहुंचने वाले हों तो फ़ोन कर दिजीये। आप के लिये गरम गरम ताज़ा खाना तैयार कर दिया जायेगा। दो चीज़े जो खाने के इलावाअच्छी लगी वो थी आव भगत और प्रेम से खाना खिलाने का तरीका। कोई टिप का लालच नही।एक शराफत भरी प्रेम स

बस्तियां

💐इंसानी बस्तियां हिंदुस्तान में तेज़ी से बढ़ती जा रही है। जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में इंसानों और जंगली जानवरों का संघर्ष नया रूप ले बड़ रहा है। जब भी आप हवाई यात्रा पे हो और मौसम साफ हो  और खिड़की वाली सीट मिले तो ध्यान से नीचे देखिये आप को इंसानी बस्तियां का क्या विस्तार हुआ है नज़र आएगा। जंगल कम बस्तियां ज्यादा नज़र आएंगी। सोचो तो एक खतरनाक सी स्तिथि बन रही है। आज ये लिख क्यों रहा हूँ? आज सुबह बंदरों ने घर पे दरवाज़े खुले देख हमला कर दिया। फ्रिज खोल खाने पीने का सामान ले उड़े। घर के ऊपर जा नलका खोल दिया। पानी बह निकला। नीचे निकासी में पानी के बहने आवाज़ आयी तो ऊपर जा कर देखा । बंदरों ने नल खोल रखा था पानी पी रहे थे।उसपे पे बेठे थे। सो उन्हें देख कर डराने की कोशिश की जालीदार दरवाज़े से। तो उन्होंने जोर दार हमला कर दिया दरवाज़े पे। बहरहाल हम अंदर थे तो घबराने वाली बात नही थी ।पर ये हो क्या रहा था? इंसानों और जानवरों के बीच में बढ़ता दुय्न्द और संघर्ष। भगाने के यत्न किये। पटाखे फोड़े तो भाग खड़े हुए।पर ये हो क्या रहा है? फरीदाबाद की कहानी लिख रहा हूँ लखनऊ की सोच रहा हूँ। वहां भी ये ही स्तिथि