😞****✍🏼कुछ अजीब सा हो रहा है न आस पास। इंसान अपनी आस्था से वहशी हुआ जाता है। नैतिकता और कानून का तराज़ू एक इंसाफ के रास्ते किंतनी जानो का दुश्मन बन सकता है। भीड़ और उसके उन्माद के नीचे कितने ही दब जाते है। भावनायें उग्र रूप धारण कर लेती है। कानून और इंसाफ आंखें बंद कर लेता है। एक लहू की धार बह निकलती है। एक ने अपने जोश से लहू बहा दिया दूसरे ने अपने विवेक की कलम से एक निरपराध उन्मादी को सदा के लिए सुला दिया। क्या आस्था क्या दोष क्या प्रभु क्या होश सब निरंकुश है भीड़ के ओट में। किसी को ईमानदारी और अपनी आन कई जानो से ज्यादा प्यारी दूसरे को अपने धर्म के गरूर से पनपी उन्माद भरी भीड़ की बलि प्यारी। दोनों ही अपना काम कर रहे है। एक इंसानियत को बचाने में उग्र है। दूसरा धर्म के प्रचार से उजड़े बिखरे घरों को जोड़ने में समग्र है। कुछ धर्म को धर्म के नाम पे बचा रहे है और कुछ नारी के शोषण को इंसाफ दिला रहे है। हैरत इस बात की है के दोनों ही भीड़ तंत्र को जानकर उन्मादी हो रहे है। इनसब के बीच अशिक्षा के धरातल से उपजी नासमझ भक्ति आसक्ति और विश्वास ने भ्रष्ट तंत्र से उलझन मोल ले ली है। धर्म बाजार हुआ जाता है। अदालतें राजनीति का अखाड़ा और बिकाऊ हुई जाती है। जानते सब हैं कहता कोई नही। सब अपने भविष्य की रोटी सेक रहे है। अपनी नज़र से इंसाफ में इंसाफ ढूंढ़ रहे है। नाइंसाफी नज़र आई तो उत्पात हो गया और नज़र को इंसाफ मिल जाता तो शायद गुरु धन्य हो खुदा हो जाता। आज भी किसी की पुरानी बात याद है । कोई कृष्ण बन के किसी के सपनो में आये थे और आंख खुली तो फोटू पे सिर झुकाए थे। सपनो की गर्माईश इतनी थी कि जहां देखते सोचते उनको हर रूप में वो श्री कृष्ण ही नज़र आते थे। माया का रूप था सो माया ने सपनो के कृष्ण को भी लील लिया। वो आज भी उनके फिर अपने सपनो में लौटने की आस लगाये बेठे है। इससे बड़ी क्या विड़बना होगी मेरे अपनो के जीवन की। कारण भी है इसका जहां भक्ति है वहां प्रश्न कहाँ। जहां भक्ति है वहां विरोध कहाँ। जहां भक्ति है वहां प्रतिशोध कहाँ। जहां भक्ति है वहां भोग कहाँ।जहां भक्ति है वहां अनिश्चय कहाँ। जहां भक्ति है वहां मैल कहाँ। ये तो गुरु से भक्ति के गुण है। तो सोच लीजये जिनमे उन्माद असिहष्णुता उग्रता क्रोध विभीषिका भरी हो उनमे भक्ति कहाँ। समय जो अच्छा था वो भी बीत गया इसी तरह जो समय बुरा है वो भी बीत हो जायेगा।अगर इतनी भी समझ संगत में पैदा न हुई तो वो संगति कहाँ और ऐसी संगति में ज्ञान कहाँ। सचाई को किसी भीड़ तंत्र की जरूरत नहीं ना ही किसी आस्था की ।झूठ ज्यादा देर छुपता नही और सचाई कभी मिटती नही।जब नाम लिया है वचन दिया है तो सहष्णुता को भी अपनाये । जब गुरु में विश्वास किया है तो ईश्वर में भी आस्था रखिये। जो इंसाफ आज अगर नही हुआ तो कल में खुदा के भरोसे विश्वास रखिये। जिनकी जाने आज चली गयी उनसे और उनके परिवारों से सांत्वना।खुदा सब की खैर करे।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
श्रद्धांजलि सुमन।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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