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धैर्य।

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हम अपना कितना धैर्य खोते जा रहे हैं आजकल?हमारी सहने और समझने की क्षमता का का कितना ह्रास हो रहा है? जैसे जैसे समाज तरक्की कर रहा है साधन संपन्न हो रहा है हम जीवन के एक अजीब आलास से ग्रस्त हो रहे है। हर चीज़ में जल्दी और आराम की लगी है। हर चीज़ अभी के अभी होनी है। हर बदलाव एक दम अभी चाहिये। उम्मीद ऐसी लगा लेते है के बस जीत आप ही कि लिखी है। हर एक से दी कदम आगे रहना है। जो दूसरे पे है उससे बेहतर मुझपे होना है। एक अजीब सी होड़ ने जन्म ले लिया है। एक सिर्फ पैसे की ताकत ने हमे सब के खिलाफ खड़े होने का बल दे दिया है। खाने पीने की व्यवस्थाएं सुलभ हो गयी है। जनता बेशुमार हुई जाती है। काम सब के पास पूरे वक़्त के लिये मिलता नही है। इंसानो के बड़े हिस्से को खालीपन निकमेपन और बेरोजगारी ने घेरा  है। कुछ ने माली हालत दरुस्त कर ली है कुछ करने में लगे है और बाकी इन द्रुस्तों से कैसे अपना हक लिया जाये इस सोच विचार में अपनी कुंठा को बढ़ाये जाते है। इस बीच एक ही बात का संचार हो रहा है वो है हर चीज़ में उग्रता का अंश। ये धीरे धीरे किसी न किसी रूप में हमारे मन में घर कर रहा है। आज औरत मर्द बराबर सशक्त हो गए है। अपना जीवन अपने हिसाब से जीने को प्रधानता तो देते ही है और जो बीच में आये उन्हें बर्दाश्त नही कर पाते। महत्वकांक्षाओं का सीधा टकराव होने लगा है। रिश्तों में आपस में एक दूसरे को बरदाश्त का मादा कहीं खत्म हो गया है। रोज बंधन टूटने लगे है।एक बेड़ी से मुक्त हो उन्मुक्तता की बेड़ी में बन्ध जाते है और कहीं जीवन के पड़ाव पे पहुंच के बहुत और बहुत अकेला ही पाते है। परिवार सिमट रहे है।येही सब आज कल बच्चों में आम देखा और पाया जाने लगा है। धीरे धीरे रिश्तें बंधन से हुए जा रहे है और आज़ाद होने की कुछ खास जल्दी लगी है। परिवार की ये दास्तान समाज में भी ये बर्दाश्त का मादा कम कर रही है। एक अजीब सी मजहबी चिढ़ पैदा होने लगी है। जो आज तक छोटे मोटे विवादों से झूंझ कर एक परिवार की तरह रहते थे आज बिखरने लगे है। एक अजीब से वर्चस्व की लड़ाई लगी है। दूसरी तरफ आप देखें आज कल सड़क पे गाड़ियां बहुत दौड़ती है । आपस में बिना जाने ही दौड़ लगी है। एक हॉर्न पे जगह न दो तो हॉर्न मारने की लाइन लगी है। जब तक हट न जाओ तो संगीत सुनते रहो और जब पास दो तो दो घूरती आंखों बड़बड़ाते होठों से मुलाकात होती है। एक युद्ध सड़क पे हो रहा था आगे निकलने वाला जीत के जा रहा था अपनी में और अपनी गाड़ी अपनी ड्राइविंग की शान दिखा रहा था।हैं ना कुछ अजीब सा।पर हो रहा है। येही हाल कमोबेश आफिस में है बॉस की सुनने से पहले ही दिमाग गर्म और मन में अंगारे नुमा बॉस के खिलाफ विचार उभरने लगते है बॉस क्या समझाने के लिए डांट रहा था इसका कोई आभास नही। स्कूल में बच्चे अब अपने को गुरु समझने लगे हैं शिक्षक की बात समझ न आये तो पूछने की जगह उसपे फैसला सुरक्षित कर लेते है।बच्चे बड़े बूढे समाज राजनीति देश सब  धैर्य खो रहे है। जो अत्यंत सोचनीय स्तिथि है। धैर्य का किसी भी रूप में कम होना कुछ टूटने के आसार पैदा कर देता है। नींव और जड़े खोखली हो जाती है । हल्की सी आंधी भी उखाड़ फेंकती है। धैर्यवान हमेशा मजबूत होता है उसमें सहने की बैजा ताकत है। जो सह सकता है उसे विचारने का समय मिल जाता है। जो विचार सकता है उसमें निर्णय की ताकत अक्सर बेहतर होती है। और जो निर्णय सही लेता है उसमें जीत का अंश हमेशा ज्यादा होता है। जहां अंश ज्यादा तो उम्मीद भी बेहतर और परिणाम भी बेहतर। अब ये हमे तह करना है कि हम और हमारा आने वाला कल कैसे धैर्यवान बने जिससे हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकें जहां हर एक अपने हिस्से की खुशी का आनंद ले सके। सोचिये शायद कल वक़्त कम मिले।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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