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अपेक्षा।

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जीवन में हमें बहुत सी अपेक्षाएं होती है। कुछ अपने से कुछ दूसरों से कुछ ईश्वर से । बड़ी लंबी फेरिस्त है इनकी। इसको हम बहुत रूपों में जानते है मसलन आकांक्षा अभिलाषा इच्छा चाह उम्मीद आदि आदि। ये समय की जरूरत भी हो सकती है।ये एक तलब हो सकती है। ये मजबूरी भी हों सकती है। ये सहायता स्वरूप भी हो सकती है। ये स्वार्थ के रूप भी हो सकती है।ये जीवन के हर पहलू में मौजूद है। ये हम कहीं भी किसी से भी रख सकते हैं यहां तक कि हमारे पालतू जानवर भी इससे बचे नहीं है। और अपेक्षा पूरी न होने पर  मन व्याकुल होता है। आप की बुद्धि पे कुछ समय के लिये पर्दा पड़ जाता है । आप भावनाओं के आवेश में बह निकलते हो। थमने पे सही गलत का एहसास हो जाता है। इन सब में मेरा प्रश्न ये है की हम अपेक्षा किस से करें? और क्यों करें?क्योकि सारी सांसारिक व्यवस्था अपेक्षाओं पे ही बनी है। बहुत विचारने के बाद मन जिसे हम दिमाग भी कह सकते है ने उत्तर कुछ ऐसे दिया- इसने मुझसे पूछा एक चीज़ बताओ जिसपे तुम्हारा  पूर्ण अधिकार हो? मैंने बहुत खोज के एक इंसान को ढूंढा। सोचिए कोन? वो में खुद था। दुनिया में मेरी बुद्धि का पूर्ण स्वामित्व मेरे शरीर मेरी सोच पे है। तो मैं अपेक्षा किस से करूँ?  तो उतर मिला स्वयं से।निस्वार्थ करूँ स्वार्थ से करूँ? यहां ये प्रश्न ही खत्म हो गया।अपेक्षा अपने से करोगे तो स्वार्थ कैसा या निस्वार्थ क्यो । जब हम अपने से अपेक्षाएं पालते हैं तो हम अपने जीवन लक्ष्य तह कर पाते है जो किसी से स्वार्थ है ही नही। हमे हमारी मंज़िल का बखूबी अंदाजा होता है। और हम किसी पे बोझ भी नही बनते। हमे किसी के प्रति दोष रोष भी नही होता । हम रिश्तों को सिर्फ रिश्तों की नज़र से देख पाते है। वहां स्वार्थ नहीं ढूंढते तो निस्वार्थ भाव अपने आप आ जाता है।और जिस रिश्ते को निस्वार्थ रूप से निभाया जाता है वहां कोई लालच दोष भी नही पनपाता। आप के प्रति मधुर भाव बना रहता है। आप रिश्तों की स्वछता लिए एक कर्मयोगी की भूमिका में होते हो। आप दूसरों से अपेक्षाओं के वश कुछ नही कर रहे होते है। और सामने वाला समय के साथ ये सब समझ जाता है।ऐसे में आप बैर भाव मानसिक संकीर्णता और दोषों से स्वयं को मुक्त कर लेते हो। सामने वाले के कर्म उसकी सफलता असफलता उसके गुण अवगुण इसकी कर्मशीलता शिथलता आप को विचलित नही करती। क्योंकि आप बेहद आसानी से अपने अधिकार को समझ चुके होते हो। ये अधिकार की समझ आप को रिश्तों के कर्तव्य से नही भटकाती।आप एक पुत्र या पुत्री भी हो आप एक पति या पत्नी भी हो आप एक माता या पिता भी हो आप एक प्रेमी या प्रेमिका भी हो सकते हो आप एक समाज सेवी या सेविका भी हो सकते हो। ये आप के कर्तव्य है। इनमे कुछ गलत होता दिखे तो आप को सही करना आप का ही कर्तव्य है। अपेक्षा का ज्ञान आप को केवल विचलित और भोझ से बचाएगा।और आप अपने कर्तव्य निभाते हुए बिना विचलित अपनी अपेक्षों को ढूंढते रहेंगे। वो आप की मंज़िलें बनी रहेंगी। आप अपने पे पूर्ण अधिकार का बेहतरीन उपयोग करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। आप अपने को अपेक्षा के प्रति किसी भी हद तक झोंकने की काबलियत रखते है। ये आप को उत्कृष्ट बनाने में सहायक है। और मजे की बात है इसके लिए आप को किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नही। न ही आप की अपेक्षा आप के इलावा कोई जानने वाला है। जो स्वार्थ वश कोशिश भी करेगा वो आपमे कुछ स्वार्थ ढूंढता पाया ही जायेगा। हर रिश्ते की अपेक्षाएं हम सब जानते है। कर्तव्य समझ कर निभाते जाईये और अपने से उनमे कोई अपेक्षा न पालिये। आप में लेने की प्रवृत्ति का ह्रास होगा और देने की प्रवृति पनपने लगेगी। जिससे।निस्वार्थ कर्म जग जाएंगे। आप अपने भीतर उत्कृष्टता का भाव महसूस करने लगोगे। अपने में अपेक्षाएं ज्ञान के माध्यम से उत्तम पालिये नकारत्मक अपेक्षाओं को ज्ञान के माध्यम से दबा दिजीये। आप को जीवन में जो स्वर्णिम सीड़ी की चाह हो  उसे आज ही अपनी अपेक्षाओं में उतारिये और अपने कर्म से उस और अग्रसर हो जाये। अपने से अपेक्षा का ज्ञान आप को एकाग्र कर बिना विचलित हुए आप की मंज़िल तक या उसके नज़दीक तो ले ही जायेगा। अपने से अपेक्षा कीजये येही खुशी का राज़ भी है।दूसरे आप को क्या नाखुश करेंगे अलबत्ता आप को देख के खुशी की राह जरूर ढूंढने के यत्न करेंगे।और जो आप की अपने से उम्मीद या अपेक्षा है उसे बनाये रखिये।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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