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होली का त्यौहार आने को है। वसंत ऋतु अपना जौहर दिखा रही है।फाल्गुन मास में प्रकृति ने सब रंग बिखेर दिए हैं।हर तरफ रंग बिरंगे फूलों की बहार है।नायाब नायाब फूल।भांति भांति के फूल।यहां वहां जहां तहां नज़र उठती है बस रंग बिखरे नज़र आते है। डेलिया इसी मौसम में खिलता है।पीला जमुनी सफेद गुलाबी लाल अनेक रंगों में।टेसू के फूलों से अरावली पर्वत शंखला केसरिया हुई जाती है।जहां तहां कपोलें खिल उठी है।खेतों में सरसों पीली चादर बिछाए है।गेंदे की तो बात ही न पूछो। गुलदावरी ने कितने रंग अख्तियार कर लिए है।गुलाबों में महक फूट पड़ी है।और देखो कुछ दिन पश्चात होली सामने होने को खड़ी है।रंग आप को जीवन के हर पहलू में रंगीनी बनाये रखने की प्रेरणा देते है।आज कल सुबह और शाम मीठी मीठी ठंड से नहाई है।हवा की शीतलता आंखों नाक से छूती हुई पूरे शरीर को आनंद दे रही है। न पंखे न ए सी की जरूरत।कमरे की खिड़कियां खोल दो मंद मंद शीतल हवा के झोंके सारे कमरे का मौसम खूबसूरत कर देते है।शरीर एक सकूँन में आ गया है। ये मौसम प्रकृति के रंगों से गुलज़ार है। दिमाग की तबीयत भी दरुस्त कर देता है। हमारे पुरखे भी बहुत रंगीन तबीयत लिए थे जो इतना सुंदर त्यौहार दिया।प्रकृति के बिखेरे प्राकृतिक रंगों से शरीर को जम कर रु बरु कर दिया। पानी से जम कर भिगोया।सारे शरीर के ताप को नेसते नाबूत कर स्वस्थ कर दिया।ग्रीष्म से पहले की पहली झलक दे दी।चैत्र महीने का पहला दिन होगा।सारा मौसम रंगों से सरोवार होगा।खूब ठंडाई पीसी जाएगी।जम के ढोलक बजेगा।खूब रास रंग होगा।कोई फूलों से होली मनायेगा।कोई अबीर गुलाल से खेलेगा।कोई पिचकारी से बरसात करेगा।कोई गुजिया खायेगा।कोई दही वड़े तो कोई मिठाई के मजे साथ लेगा।मुँह इतने रंगे जाएंगे क़ी पहचानना भी मुश्किल होगा।इसी तरह कुछ रंग लीला खेली जायेगी।हम भी बचपन से ही कुछ अपनी विरासत को सहेजते रहे।होली में टेसुओं से बने रंग की चर्चा स्कूल में सुनी और किताबों में पढ़ी।जनाब टेसू के फूल खरीद लाये।रात को भिगो के सुबह रंग बनाये।जम के प्रकृति रंग से होली खेली।कुछ बड़े हुए तो टेसू के जंगल ही देख आये।अब लाले की दुकान की जगह खुद ही फूल इकठ्ठे कर लाये।वाह क्या बात थी।मुफ्त के रंगों से होली मना डाली।बड़ी मुश्किल से लोहे की पिचकारी एक बार मिली थी जो सालों साल मरम्त कर खूब चली थी।जब होली निकल जाती तो फुटबॉल में हवा भरने के काम आती।जब वॉशर खराब हो जाती तो बदली जाती।क्या बात थी उस तंगी के जमाने की फिर भी जीवन की ये रंगीन खुशियां फागुन के संग खूब मनाई जाती।आलू के ठप्पे बनाये जाते।चोर 420 लिख के खूब चेपे जाते।।सुबह उठते तो माँ रंग लगाती और फिर नाहा धुला के ईश्वर को लगवाती।फिर कुछ सहीज के रखे पुराने कपड़े पहनवती।और होली खेलने भेज देती।बहुत मजे किये हुड़दंग किये।एक बार खूब पिटे भी।महीनों बाद दर्द गायब हुए।फिर समझे ये भी तो जीवन का रंग ही था।चलो सारे गिले शिकवे एक बार फिर भूलें आओ एक बार होली फिर संग खेलें।उम्र बीत रही रंगों से रूबरू होने की जुस्तजू आज भी यू ही कायम है।ना कोई मन में खेद न कोई गिला बस मनों का मेला है।भांति भांति के फूल खिले है।खुशबू हर जगह उड़ रही है।हम भी इससे सरोबार है।मन भी महक रहा है।परसों हमारे परम मित्र के पिता जी का देहावसान हो गया।इस संसार की एक रंगीनी गयी और न जाने कितनी रंगीनियां आ चुकी।जीवन के क्रम में ये भी एक रंग है।श्वेत इसकी परिभाषा है।दुख में शायद आगे बढ़ती जिंदगी का कोई तो सुख छुपा है।हमारी यादों के रंगीन सायों में आप हमेशा जीते रहेंगे ।इसी के साथ सब को होली के पर्व के आगमन की आहट के साथ बहुत बहुत बधाई।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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