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तक्षशिला एक शिक्षा का मंदिर ।इतिहास।

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आज बहुत मन हुआ कुछ इतिहास पे पढ़ने का।सोचा कहाँ से शुरू करूँ।तो ख्याल आया क्यों न शिक्षा के मंदिर से ही शुरू किया जाये।छूटते ही जो नाम याद आया वो था तक्षशिला। लीजिये जानिये तक्षशिला को।
तक्षशिला (पालि : तक्कसिला) प्राचीन भारत में गांधार देश की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ का विश्वविद्यालय विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में शामिल है। यह हिन्दू एवं बौद्ध दोनों के लिये महत्व का केन्द्र था। चाणक्य यहाँ पर आचार्य थे। ४०५ ई में फाह्यान यहाँ आया था।
ऐतिहासिक रूप से यह तीन महान मार्गों के संगम पर स्थित था-
(१) उत्तरापथ - वर्तमान ग्रैण्ड ट्रंक रोड, जो गंधार को मगध से जोड़ता था,
(२) उत्तरपश्चिमी मार्ग - जो कापिश और पुष्कलावती आदि से होकर जाता था,
(३) सिन्धु नदी मार्ग - श्रीनगर, मानसेरा, हरिपुर घाटी से होते हुए उत्तर में रेशम मार्ग और दक्षिण में हिन्द महासागर तक जाता था।
वर्तमान समय में तक्षशिला, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील तथा महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी से लगभग ३२ किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। ग्रैंड ट्रंक रोड इसके बहुत पास से होकर जाता है। यह स्थल १९८० से यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में सम्मिलित है। वर्ष २०१० की एक रिपोर्ट में विश्व विरासत फण्ड ने इसे उन १२ स्थलों में शामिल किया है जो अपूरणीय क्षति होने के कगार पर हैं। इस रिपोर्ट में इसका प्रमुख कारण अपर्याप्त प्रबन्धन, विकास का दबाव, लूट, युद्ध और संघर्ष आदि बताये गये हैं।
यों तो गांधार की चर्चा ऋग्वेद से ही मिलती है किंतु तक्षशिला की जानकारी सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण से होती है। अयोध्या के राजा रामचन्द्र की विजयों के उल्लेख के सिलसिले में हमें यह ज्ञात होता है कि उनके छोटे भाई भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति के आमंत्रण और उनकी सहायता से गंधर्वो के देश (गांधार) को जीता और अपने दो पुत्रों को वहाँ का शासक नियुक्त किया। गंधर्व देश सिंधु नदी के दोनों किनारे, स्थित था (सिंधोरुभयत: पार्श्वे देश: परमशोभन:, वाल्मिकि रामायण, सप्तम, 100-11) और उसके दानों ओर भरत के तक्ष और पुष्कल नामक दोनों पुत्रों ने तक्षशिला और पुष्करावती नामक अपनी-अपनी राजधानियाँ बसाई। (रघुवंश पंद्रहवाँ, 88-9; वाल्मीकि रामायण, सप्तम, 101.10-11; वायुपुराण, 88.190, महाभारत, प्रथम 3.22)। तक्षशिला सिंधु के पूर्वी तट पर थी। उन रघुवंशी क्षत्रियों के वंशजों ने तक्षशिला पर कितने दिनों तक शासन किया, यह बता सकना कठिन है। महाभारत युद्ध के बाद परीक्षित के वंशजों ने कुछ पीढ़ियों तक वहाँ अधिकार बनाए रखा और जनमेजय ने अपना नागयज्ञ वहीं किया था (महा0, स्वर्गारोहण पर्व, अध्याय 5)। गौतम बुद्ध के समय गांधार के राजा पुक्कुसाति ने मगधराज बिम्बिसार के यहाँ अपना दूतमंडल भेजा था। छठी शती ई0 पूर्व फारस के शासक कुरुष ने सिंधु प्रदेशों पर आक्रमण किया और बाद में भी उसके कुछ उत्तराधिकारियों ने उसकी नकल की। लगता है, तक्षशिला उनके कब्जे में चली गई और लगभग 200 वर्षों तक उसपर फारस का अधिपत्य रहा। मकदूनिया के आक्रमणकारी विजेता सिकंदर के समय की तक्षशिला की चर्चा करते हुए स्ट्रैबो ने लिखा है (हैमिल्टन और फाकनर का अंग्रेजी अनुवाद, तृतीय, पृष्ठ 90) कि वह एक बड़ा नगर था, अच्छी विधियों से शासित था, घनी आबादीवाला था और उपजाऊ भूमि से युक्त था। वहाँ का शासक था बैसिलियस अथवा टैक्सिलिज। उसने सिकंदर से उपहारों के साथ भेंट कर मित्रता कर ली। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र भी, जिसका नाम आंभी था, सिकंदर का मित्र बना रहा, किंतु थोड़े ही दिनों पश्चात् चंद्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी पश्चिमी सीमाक्षेत्रों से सिकंदर के सिपहसालारों को मारकर निकाल दिया और तक्षशिला पर उसका अधिकार हो गया। वह उसके उत्तरापथ प्रांत की राजधानी हो गई और मौर्य राजकुमार मत्रियों की सहायता से वहाँ शासन करने लगे। उसक पुत्र बिंदुसार, पौत्र सुसीम और पपौत्र कुणाल वहाँ बारी-बारी से प्रांतीय शासक नियुक्त किए गये। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि वहॉँ मत्रियों के अत्याचार के कारण कभी कभी विद्रोह भी होते रहे और अशोक (सुसीम के प्रशासकत्व के समय) तथा कुणाल (अशोक के राजा होते) उन विद्रोहों को दबाने के लिये भेजे गए। मौर्य साम्राज्य की अवनति के दिनों में यूनानी बारिव्त्रयों के आक्रमण होने लगे और उनका उस पर अधिकार हो गया तथा दिमित्र (डेमेट्रियस) और यूक्रेटाइंड्स ने वहाँ शासन किया। फिर पहली शताब्दी ईसवी पूर्व में सीथियों और पहली शती ईसवी में शकों ने बारी बारी से उसपर अधिकार किया। कनिष्क और उसके निकट के वंशजों का उस पर अवश्य अधिकार था। तक्षशिला का उसके बाद का इतिहास कुछ अंधकारपूर्ण है। पाँचवीं शताब्दी में हूणों ने भारत पर जो ध्वंसक आक्रमण किये, उनमें तक्षशिला नगर भी ध्वस्त हो गया। वास्तव में तक्षशिला के विद्याकेंद्र का ह्रास शकों और उनके यूची उत्तराधिकारियों के समय से ही प्रारभं हो गया था। गुप्तों के समय जब फाह्यान वहाँ गया तो उसे वहाँ विद्या के प्रचार का कोई विशेष चिह्न नहीं प्राप्त हो सका था। वह उसे चो-श-शिलो कहता है। (लेगी फाह्यान की यात्राएँ अंग्रजी में, पृष्ठ 32) हूणों के आक्रमण के पश्चात् भारत आने वाले दूसरे चीनी यात्री युवान च्वांड् (सातवीं शताब्दी) को तो वहाँ की पुरानी श्री बिल्कुल ही हत मिली। उस समय वहाँ के बौद्ध भिक्षु दु:खी अवस्था में थे तथा प्राचीन बौद्ध विहार और मठ खंडहर हो चुके थे। असभ्य हूणों की दुर्दांत तलवारों ने भारतीय संस्कृति और विद्या के एक प्रमुख केंद्र को ढाह दिया था।
भारतीय इतिहास में तक्षशिला नगरी विद्या और शिक्षा के महान केंद्र के रूप में प्रसिद्ध थी। ऐसा लगता है कि वैदिक काल की कुछ अंतिम शताब्दियों के पूर्व उसकी ख्याति बहुत नहीं हो पाई थी। किंतु बौद्धयुग में तो वह विद्या का सर्वमुख्य क्षेत्र थी। यद्यपि बौद्ध साहित्य के प्राचीन सूत्रों में उसकी चर्चा नहीं मिलती तथापि जातकों में उसके वर्णन भरे पड़े हैं। त्रिपिटक की टीकाओं और अठ्ठकथाओं से भी उसकी अनेक बातें ज्ञात होती हैं। तदनुसार बनारस, राजगृह, मिथिला और उज्जयिनी जैसे भारतवर्ष के दूर-दूर क्षेत्रों से विद्यार्थी वहाँ पढ़ने के लिये जाते और विश्वप्रसिद्ध गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करते थे। तिलमुष्टि जातक (फॉसवॉल और कॉवेल के संस्करणों की संख्या 252) से जाना जाता है कि वहाँ का अनुशासन अत्यंत कठोर था और राजाओं के लड़के भी यदि बार-बार दोष करते तो पीटे जा सकते थे। वाराणसी के अनेक राजाओं (ब्रह्मदत्तों) के अपने पुत्रों, अन्य राजकुमारों और उत्तराधिकारियों को वहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये भेजने की बात जातकों से ज्ञात होती है (फॉसबॉल की संख्या 252)।
स्पष्ट है कि तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का अन्यतम केंद्र थी। वहाँ के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे। आयुर्वेद और विधिशास्त्र के वहाँ विशेष विद्यालय थे। तक्षशिला के स्नातकों में भारतीय इतिहास के कुछ अत्यंत प्रसिद्ध पुरुषों के नाम मिलते हैं। संस्कृत साहित्य के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण पाणिनि गांधार स्थित शालातुर के निवासी थे और असंभव नहीं, उन्होने तक्षशिला में ही शिक्षा पाई हो। गौतम बुद्ध के समकालीन कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति भी वहीं के विद्यार्थी रह चुके थे जिनमें मुख्य थे तीन सहपाठी कोसलराज प्रसेनजित्, मल्ल सरदार बंधुल एवं लिच्छवि महालि; प्रमुख वैद्य और शल्यक जीवक तथा ब्राह्मण लुटेरा अंगुलिमाल। वहाँ से प्राप्त आयुर्वेद संबंधी जीवक के अपार ज्ञान और कौशल का विवरण विनयपिटक से मिलता है। चाणक्य वहीं के स्नातक और अध्यापक थे और उनके शिष्यों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ चंद्रगुप्त मौर्य, जिसने अपने गुरु के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। तक्षशिला में प्राय- उच्चस्तरीय विद्याएँ ही पढ़ाई जाती थीं और दूर-दूर से आने वाले बालक निश्चय ही किशोरावस्था के होते थे जो प्रारंभिक शिक्षा पहले ही प्राप्त कर चुके होते थे। वहाँ के पाठयक्रम में आयुर्वेद, धनुर्वेद, हस्तिविद्या, त्रयी, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, गणित, ज्योतिष, गणना, संख्यानक, वाणिज्य, सर्पविद्या, तंत्रशास्त्र, संगीत, नृत्य और चित्रकला आदि का मुख्य स्थान था। जातकों में उल्लिखित (फॉसबॉल संस्करण, जिल्द प्रथम, पृष्ठ 256) वहाँ पढ़ाए जानेवाले तीन वेदों और 18 विद्याओं में उपयुक्त अवश्य होंगें। किंतु कर्मकांड की शिक्षा के लिये तक्षशिला नहीं, अपितु वाराणसी ही अधिक प्रसिद्ध थी। तक्षशिला की सबसे बड़ी विशेषता थी, वहाँ पढ़ाए जानेवाले शास्त्रों में लौकिक शस्त्रों का प्राधान्य था।
कुछ विद्वानों का मत है (अल्तेकर, एजुकेशन इन एंशेंट इंडिया, 1944, पृष्ठ 106-7) कि तक्षशिला में कोई आधुनिक महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों जैसी एक संगठित एवं समवेत संस्था नहीं थी, अपितु वह विद्या का ऐसा केंद्र था जहाँ अलग-अलग छोटे-छोटे गुरुकुल होते और व्यक्तिगत रूप से विभिन्न विषयों के आचार्य आगंतुक विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे। किंतु इस बात का ध्यान रखते हुए कि उस समय के गुरुकुलों पर गुरुओं के अतिरिक्त अन्य किसी अधिकारी अथवा केंद्रीय संस्था का कोई नियंत्रण नहीं होता था, यह असंभव नहीं जान पड़ता कि तक्षशिला के सभी गुरुकुलों के छात्रों की सारी संख्या और उन अलग अलग गुरुकुलों का समवेत स्वरूप आधुनिक विश्वविद्यालयों से विशेष भिन्न न रहा हो। कभी-कभी तो एक-एक गुरुकुल में पाँच-पाँच सौ विद्यार्थी होते थे (जातक, फॉसबॉल, प्रथम, पृष्ठ 239, 317, 402; तृतीय, पृ0 18, 235 आदि) और उनमें विभिन्न विषय अवश्य पढ़ाए जाते होगें। उनको महाविद्यालयों की संज्ञा देना अनुचित न होगा।
वक़्त बीता राजपाठ चले गए। राजा।समाप्त हुए।अब अनुदान को दे।धर्म कभी वहां ज्यादा प्रबल हो नही सका।युद्धों की मार झेलता ये अपने समय का सबसे उच्च शिक्षा का विद्यामंदिर आज बस एक खण्डर है।जिसे विश्व सहेजना चाहता है।हमारे यहां भी नालंदा के बस अवशेष है।सरकारें आयी और चली गयी कोई विश्वस्तरीय शिक्षा का केंद्र ने बना सकी।आगे और चर्चा होगी।स्कूल में हम कम ही पड़ते थे।अब समय मिल रहा है और हम इसका बेहतर इस्तेमाल कर रहे है।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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