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लफ्ज़ क्या मुह से हमारे निकले के ख्वाबों की तहरीर बन गये।
हम ख्वाबों में निकले और किसी की तदवीर बन गए।।
मुनासिब तो ये होता के हम सचमुच की जिंदगी जीते।
मगर दिल फरेब कमबख्त ख्वाबों ने बीच दरिया में डूबा दिया।।
बंद आंखों से न जाने कब हमने जिंदगी हसीन कर ली।
जब आंख खुली तो वही मैली दुनिया फिर इंतज़ार में मिली।
खैर तो ये थी के हम दिन में भी सपनो में उलझे रहे थे।
वरना इस दुनिया ने तो मिटाने की कोशिश खूब कर ली।।
फिर हमने ख्याल आज़ाद किये और हसीना से टकरा गये।
उफ्फ ये क्या हुआ हमे अबे बेशर्म ख्याल से ही ख्वाबों में शरमा गये।।
बचपन तो वैसे ही बेशर्म था हमारा जब भी याद आता दो लगा के चला जाता।
जवानी में सोचा रहम करेगा मगर ससुरा पहले से ज्यादा बेशर्म नज़र आता।।
वो कितनी स्कूल की तितलियां जो कभी हाथ ही न आई।
जब भी आई तो यार कमबख्त ख्वाबों में बहला के चली गयी।
बड़ी उम्र गुजरी अब ये हसीन लाजवाब ख्वाब लेते लेते ओ अंकल।
कुछ तो सुधर जाओ और अपने इन हसीन मुख्तलिफ से खवाबो से बाहर आओ।।
अब आप भी सो जाओ।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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