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बहुत ख्याल आये आज ताले के।
सोचा कहाँ कहाँ जडुं इन्हें।
सोचा क्यों न जुबांन पे जडुं पहले।
क्यों न नकारात्मक सोच पे जडुं इसे।
क्यों न अपनी जिद्द पे जडुं इसे।
क्यों न अपने क्रोध पे जडुं इसे।
क्यों न खोते विवेक पे जडुं इसे।
क्यों न अपनी तुच्छ आकांक्षाओं पे जडुं इसे।
क्यों न बढ़ती मनोविकृति पे जडुं इसे।
क्यों न खोती सहनशीलता पे जडुं इसे।
क्यों न द्वेष पालती बुद्धि पे जडुं इसे।
क्यों न विलासता के द्वार पे जडुं इसे
क्यों न भोग प्यास पे जडुं इसे।
क्यों न कटु वाणी पे जडुं इसे।
क्यों न असत्य वचनों पे जडुं इसे।
क्यों न काम अभिलाषा पे जडुं इसे।
क्यों न भीतरी उन्माद पे जडुं इसे।
क्यों न विभस्त सोच पे जडुं इसे।
क्यों न तृस्कार की भावना पे जडुं इसे।
क्यों न मूर्खता अज्ञान पे जडुं इसे।
क्यों न संदेह भाव पे जडुं इसे।
क्यों न धोखों पे लगाऊं इसे।
क्यों न फरेबों पे कसु इसे।
बहुत से प्रश्न उठे मन मे सोचा कहाँ कहाँ लगाऊं इन्हें।
कुछ गिन लिए कुछ लगा दिए कुछ बाकी रह गये।
इतना ही समझ आया बस इन तालों से खुशियां महफूज़ है।
और एक बात इन ताले को चाबी लगाकर फेंक दी मैनें ।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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