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ये कोंन सी, मंज़िलों पे बड़ा जा रहा मैं।
खुद से जो पूछू ,ये क्या कर रहा मैं।
जिधर देखता हूँ ,कुछ जानी सी ये डगर है।
मैं क्या कहूँ ,कुछ होने लगा है मुझे भी।
क्या चाहता हूँ ,कुछ कह ही नही पा रहा में।
बोल के उनको, कुछ ऐसे बंधा जा रहा मैं।
जैसे कोई ,सफर हो सुहाना भरा ये।
ऐसे ,अपने मन से ही लगा जा रहा मैं।
ये कोंन सी मंज़िलों पे बड़ा जा रहा मैं।
कुछ उनकी यादों में ,खोता ही जा रहा मैं।
खोने को है देखो ,मेरे दिल का ये समा भी।
कहने को तो, मुझको सारी खबर है तुम्हारी।
फिर भी हो यू ,बेपरवाह लुटा जा रहा मैं।
क्या तुम मुझसे ,इतनी ही बंधी आ रही हो।
मैं तो तुम्हारी ,और खींचता ही चला जा रहा हूँ।
रोके न कोई ,के मैं मंजिलों पे बड़ा आ रहा हूँ।
ये कोंन सी, मंज़िलों पे बड़ा जा रहा मैं।
देखो चारों और, तुमसे घिरा जा रहा मैं।
अब तो, ये बता दो।
ये कोंन सी, मंज़िलों पे बड़ा जा रहा मैं।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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