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कभी कभी बहुत आंदोलित होता हूँ मैं।
व्यवस्थाओं के शिखर का बोझ ढोता हूँ मैं।
हर और फैले मैले को शायद ढोता हूँ मैं।
कभी नगवार गुजरे तो बेमन होता हूँ मैं।
हर और अहंकार भयं की फैली ज्वाला है।
हर इंसान अपने मे दुबक जीवन जीता है।
खोखले संदेशों की माला घूमता पिरोता है।
झूठ कपट धोखों को ओढे रहता फिरता है।
हर शख्श अपने झूठ में सच को ढूंढता फिरता है।
महान बनने को फिरता है पर सच बोलने से डरता है।
आनंद की अनुभूति में दुख की बेकदरी करता है।
वक़्त लौट के आता है इसकी फिक्र कब करता है।
फरेबों ने जिंदगी झूठ की इमारत बना के रखी है।
हर कोने में जिसके जिंदगी बुझी सी छुपी पड़ी है।
मुस्कराता हूँ मैं शायद अपने सच को छुपाते हुए।
कोशिश भी की शायद डर के शायद गुम हो गया मैं।
बस एक पहचान को ढूंढ रहा हूँ मै जो मिलती नही।
इतनी दलदल भर ली है के ढूंढने को पैर चलाता हूँ औऱ डूब जाता हूँ ।
कहीं तो ईश्वर कोई एक सहारा दे दे मुझे।
पकड़ जिसे मैं भी बाहर आ सकूं कुछ दिन सच की जिंदगी जी भर जी सकूं।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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