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अपने भीतर रोज़ ज्ञान का दीपक अब जलाता हूँ मैं।
अपनी खोज में निरंतर लगा हूँ मै।
बहुत से मेरे अंधेरे छटने लगे।
मुझे जीवन के आईने दिखने लगे।
अंधेरों में जहां गम था आशाओं के दीप जलने लगे।
अपने ही बहुत से अंधेरे कोने दिखने लगे।
हर औऱ बहुत कुछ नया था समझ आने लगा।
मैं कहाँ छूटा था कुछ समझ आने लगा।
वक़्त की स्याही के निशान चमकने लगे।
जिन्हें अनजाने में छोड़ आया था पीछे अचानक दिखने लगे।
खिड़की की चिटखनी भी नज़र आई।
लपक के खिड़की खोल ली।
ताजे शुद्ध ख्यालों की हवा के झोंके आये।
दिमाग की गहराइयों में ताजगी लौटा लाये।
कुछ ठंडक भी थमा गये।
कुछ शांति छोड़ गये।
बहुत लबे समय से अंधेरों में कहीं गुम था मैं।
भटकाव चारों और था।
कभी कहीं कभी किसी से अंधा बना टकरा रहा था।
खूब चोट खा रहा था।
तभी किसी का हाथ मिला।
एक ज्ञान दीपक थमा दिया।
कुछ हथेलियों से उसे सहला दिया।
अल्लादीन ने ज्ञान दीपक जगमगा दिया।
कुछ रोशनी हुई।
बन्द खिड़कियां खुली।
ताज़गी मिली।
भोर सी दिखी।
शायद मुझे लंबी नींद से जगा दिया।
और अब अपने भीतर रोज ज्ञान का दीपक जलाता हूँ मैं।
अपनी खोज में निरंतर लगा हूँ मै।
बहुत से मेरे अंधेरे छटने लगे।
मुझे जीवन के आईने दिखने लगे।
जय हिंद।
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सुप्रभात मित्रो।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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