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मंजिलें है हमसे बहुत दूर हमने भी तह करने की ठानी है।
रुकावटें है बहुत मंजिलों में हमने भी पार पाने की ठानी है।
कठनाइयाँ है बहुत मंजिलों में हमने भी लांघने की ठानी है।
परेशानियां है बहुत मंजिलों में हमने भी गुजरने की ठानी है।
रुसवाईयाँ है बहुत मंजिलों में हमने भी सहने की ठानी है।
जग हसाइयाँ है बहुत मंजिलों में हमने हसने की ठानी है।
अकेलापन हैं बहुत मंजिलों में अकेले ही चलने की ठानी है।
दोराहे भी है बहुत मंजिलों में अपनी राह जाने की ठानी है।
मोड़ भी है बहुत मंजिलों में अडिग रह जाने की ठानी है।
घुमाव है बहुत मंजिलों में चकमा दे निकल जाने की ठानी है।
रिश्ते भी है बहुत मंजिलों में हो सके तो निभाने की ठानी है।
व्यसन भी है बहुत मंजिलों में इनसे बच निकलने की ठानी है।
मोहपाश भी है बहुत मंजिलों में शायद बंधे चलने की ठानी है।
घोर काली घटायें है मंजिलों में न डरने की इनसे ठानी है।
बस एक जोश है अब इन मंजिलों पे पहुंचने की ठानी है।
इन मंजिलों पे पहुंचने की ठानी है।
जय हिंद।
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सुप्रभात।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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