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बर्बरीक- योद्धा जो महाभारत का युद्ध न लड़ सका।

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महाभारत की बहुत सी कथाएं सुनाई जाती थी बच्चों को।एक कथा और थी जिसे सुनने ने मजा आता था वो थी बर्बरीक की। एक कटा सर जिसने पूरा युद्ध देखा।सिर्फ कृष्ण का सुदर्शन चक्र संहार करते देखा। बड़ा आनंद आता था।बाल्यकाल में कथाएं बहुत संक्षिप्त में सुनाई जाती थी। श्री कृष्ण को अचंभित होते हुए सुनने का इंतज़ार रहता था। कल्पनाये उड़ान भरने लगती और कब आंख लगती पता ही न चलता। चलिये आज सबसे पराकर्मी बलशाली सक्षम योद्धा के अंत से भगवान बनने की कथा कहते है।कथाओं के माध्यम से बर्बरीक की  जन्म कथा पिछले जन्म की कथा और दादा से युद्ध की कथा सुनाते है।
कथा स्कन्दपुराण के महेश्वर खंड में बहुत विस्तार से लिखी गयी है।
कथा सुनिये--
महाभारत के एक महान धनुर्धारी योद्धा थे। वे पांडव महाबली भीमसेन के पुत्र घटोत्कच और मोरवी (नागकन्या माता) के पुत्र थे। बर्बरीक को उनकी माँ ने यही सिखाया था कि हमेशा हारने वाले की तरफ से लड़ना और वे इसी सिद्धांत पर लड़ते भी रहे। बर्बरीक को कुछ ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त थीं, जिनके बल से पलक झपते ही #महाभारत के युद्ध में भाग लेनेवाले समस्त वीरों को मार सकते थे। जब वे युद्ध में सहायता देने आये, तब इनकी शक्ति का परिचय प्राप्त कर श्रीकृष्ण ने अपनी कूटनीति से इन्हें रणचंडी की बलि चढ़ा दिया। महाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इनकी कामना श्रीकृष्ण के वरदान से पूर्ण हुई और इनका कटा सिर अंत तक युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा। कुछ कहानियों के अनुसार बर्बरीक एक यक्ष थे, जिनका पुनर्जन्म एक इंसान के रूप में हुआ था। बर्बरीक गदाधारी भीमसेन के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र थे। बर्बरीक की कथा: बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध-कला अपनी माँ से सीखी। परमात्मा वाल्मीकि की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये और 'तीन बाणधारी' का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। महर्षि बाल्मीकि ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे। ये संक्षिप्त में था।
चलो पहले बर्बरीक के जन्म कथा भी सुन लीजिये ।भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच शूरवीर योद्धा थे। घटोत्कच अपने परिजनों के दर्शन के लिए इन्द्रप्रस्थ आए तो श्रीकृष्ण ने पांडवों से घटोत्कच का शीघ्र विवाह कराने को कहा। पांडवों ने श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि वह घटोत्कच के लिए योग्य वधू सुझाएं। श्रीकृष्ण ने कहा- असुरों के शिल्पी मूर दैत्य की बुद्धिमान एवं वीर कन्या कामकटंककटा या मोरवी ही इसके लिए सबसे योग्य है। मूरपुत्री मोरवी ने शर्त रखी है कि वह उस वीर से ही विवाह करेगी जो उसे शास्त्र और शस्त्र दोनों विद्याओं में परास्त कर दे। मैं घटोत्कच को स्वयं दीक्षित कर मोरवी का वरण करने भेजूँगा। श्रीकृष्ण द्वारा दीक्षित होकर घटोत्कच मोरवी का वरण करने उसके दिव्य महल पहुंचे। देवी कामाख्या की अनन्य भक्त मोरवी शस्त्र विद्या में पारंगत थी। कामाख्या देवी ने उसे कई दिव्य शक्तियां दी थीं। उसके महल के द्वार पर उन वीरों की मुंडमालाएं लटक रही थीं जो मोरवी से विवाह के लिए आए थे किंतु परास्त होकर अपने प्राण गंवा बैठे। घटोत्कच मोरवी के समक्ष उपस्थित हुए। मोरवी घटोत्कच के रूप एवं सौंदर्य पर मुग्ध हो गईं। मोरवी को आभास हुआ कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं है, फिर भी उसने परीक्षा लेने की ठानी। मोरवी ने घटोत्कच से पूछा, “क्या आप मेरे प्रण के बारे में जानते हैं? आपको अपने विवेक और बल से मुझे परास्त करना होगा। इसमें प्राण भी जा सकते हैं।” मोरवी ने घटोत्कच से शास्त्र विद्या का प्रमाण देकर निरुत्तर करने को कहा। घटोत्कच ने पूछा, “किसी व्यक्ति की पत्नी से एक कन्या ने जन्म लिया। कन्या को जन्म देते ही वह चल बसी। कन्या के पिता ने उसका पालन पोषण कर बड़ा किया। जब वह कन्या बड़ी हुई तो पिता की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। वह अपनी पुत्री से बोला मैंने अज्ञात स्थान से लाकर तुम्हारा पालन-पोषण किया है। अब तुम मुझसे विवाह रचाकर मेरी कामना पूरी करो। उस कन्या को सत्य का पता नहीं था। अनजाने में वह अपने पिता से विवाह कर लेती है। दोनों से उन्हें एक बेटी पैदा हुई। यह बताओ कि वह कन्या उस नीच कामी पुरुष की पुत्री हुई या दौहित्री?” मोरवी निरुत्तर हो गई। उसने शस्त्र विद्या में घटोत्कच परास्त करने के लिए अपना खेटक उठाया। तभी घटोत्कच ने मोरवी को पृथ्वी पर पटक दिया। मोरवी घटोत्कच के हाथों शास्त्र और शस्त्र दोनों विद्याओं में परास्त हो चुकी थी। उसने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए घटोत्कच से विवाह की हामी भर दी। घटोत्कच ने कहा- सुभद्रे! उच्च कुल के लोग चोरी छुपे विवाह नहीं करते है। तुम आकाश गामिनी हो, अपनी पीठ पर बिठाकर मुझे मेरे परिजनों के निकट ले चलो। हम दोनों का विवाह उनके समक्ष ही होगा।” मोरवी घटोत्कच को अपनी पीठ पर बिठाकर उनके परिजनों के समक्ष ले आई। यहाँ श्री कृष्ण एवं पांडवो की उपस्थिति में घटोत्कच का विवाह मोरवी के साथ विधि-विधान से हुआ। मोरवी ने एक बालक को जन्म दिया। बालक के बाल बब्बर शेर जैसे घुंघराले थे इसलिए घटोत्कच ने उसका नाम ‘बर्बरीक’ रखा. जन्म लेते ही बालक पूर्णत: विकसित हो गया। उस बालक को लेकर महाबली घटोत्कच, भगवान श्री कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को आशीष दिया। बालक बर्बरीक ने श्रीकृष्ण से पूछा-“हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है?” श्रीकृष्ण बर्बरीक के इन विचारों से प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्हें“सुहृदय” नाम दिया। श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकारी व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने में है। इसके लिये तुम्हें शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेंगी। इसलिए तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में सिद्ध अम्बिकाओ व नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ प्राप्त करो।” भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से बर्बरीक ने महीसागर क्षेत्र में सिद्ध अम्बिकाओ की आराधना की। प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान की। दिव्य बाणों से तीनों लोकों में विजय प्राप्त की जा सकती थी। देवी ने उन्हें“चण्डील” नाम से अलंकृत किया। सिद्ध अम्बिकाओ ने वीर बर्बरीक को आदेश दिया कि वह उनके परम भक्त विजय नामक ब्राह्मण की सिद्धि पूर्ण कराने में सहायता करें। वीर बर्बरीक की सुरक्षा में विजय ने यज्ञ आरंभ किया। बर्बरीक ने उस सिद्ध यज्ञ में विघ्न डालने आये पिंगल-रेपलेंद्र-दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों का अंत कर यज्ञ को विधिवत पूर्ण कराया। वीर बर्बरीक ने ब्रह्मचारी होने का प्रण लिया था। उन्होंने पृथ्वी और पाताल के बीच मार्ग में नाग कन्याओं का विवाह प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर सदैव निर्बल एवं असहाय लोगों की सहायता करने का व्रत लिया है।
अब आगे की कथा युद्ध के मैदान तक जाती है---
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, अतः यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले घोड़े, तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए। सर्वव्यापी श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी भी उड़ायी कि वे मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आऐ हैं। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकस में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा। इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल वृक्ष के सभी पत्तों को छेदकर दिखलाओ, जिस वृक्ष के नीचे दोनो खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण वृक्ष के पत्तों की ओर चलाया। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और श्रीकृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए वरना ये आपके पैर को चोट पहुँचा देगा। श्रीकृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराया कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जिस ओर की सेना निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। श्रीकृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा। ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। श्रीकृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और श्रीकृष्ण के बारे में सुनकर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया। उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीरवर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है, उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतएव उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। महाभारत युद्ध की समाप्ति पर विजयी पांडवों में ही आपसी बहस होने लगी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है तो सूर्यपुत्र कर्ण ने भी अपने युद्ध व मित्र धर्म की बखूबी रक्षा की। परंतु श्रीकृष्ण की शिक्षा, उनकी उपस्थिति व उनकी युद्धनीति ही निर्णायक सिद्ध हुई। युद्धभूमि में मुझे सिर्फ श्रीकृष्ण का घुमता सुदर्शन चक्र और कर्ण के तरकश के असंख्य बाण ही दिखायी दे रहे थे जो कि दोनों ओर की सेनाओं को छिन्न भिन्न किऐ जा रहे थे।
ये महाभारत के युद्ध का दृश्य वृतांत था। 
बर्बरीक से एक और युद्ध कथा जुड़ी है
महाभारत के युद्ध से पहले दादा भीम और पौत्र बर्बरीक का युद्ध भी हुआ था। अज्ञातवास झेल रहे पांडव एक दिन चंडिका देवी के दर्शन को चंडिका स्थान पहुंचे। बहुत थके होने के कारण वे थोड़ा विश्राम करने लगे। भीमसेन को बहुत जोर की प्यास लगी थी। उन्हें चंडी देवी का कुंड नजर आया। युधिष्ठिर ने भीम को सावधान किया कि अगर हाथ-पैर धोने हों तो कुंड से पानी निकालकर बाहर धोना अन्यथा जल दूषित करने का दोष लगेगा। भीम प्यास से व्याकुल थे। कुंड देखकर उन्हें युधिष्ठिर की चेतावनी याद नहीं रही। कुंड में प्रवेश किया और हाथ-मुंह धोने लगे। देवी चंडिका के सेवक बर्बरीक ने उन्हें ऐसा करते देख जोरदार आवाज में टोका। बर्बरीक ने कहा- तुम देवी के कुंड में हाथ-पैर धो रहे हो। इसी जल से मैं देवी को स्नान कराता हूं। क्या जल प्रयोग की गरिमा तुम्हें नहीं सिखाई गई? तत्काल कुंड से बाहर आओ। भीमसेन बर्बरीक के दादा थे लेकिन दोनों का पहले कभी मेल हुआ नहीं था इसलिए दोनों एक दूसरे को पहचान नहीं पाए। भीम बोले- तुम मुझे आचार-व्यवहार सिखाने वाले कौन होते हो? जल का प्रयोग स्नान आदि के लिए मुनियों ने भी बताया है- मैं वही कर रहा हूं। बर्बरीक क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा- मुनियों ने बहते जल में स्नान की बात कही है। कुंड का जल स्थिर होता है। इसमें स्नान करने से यह गंदा होता है। अपनी भूल तत्काल सुधारो। दोनों महावीरों में अप्रिय बहस होने लगी। कोई झुकने को तैयार न था। क्रोधित हो बर्बरीक ने भीम पर एक चट्टान दे मारा। भीम बर्बरीक को ललकारते हुए कुंड से बाहर आए। दोनों बड़े वीर थे। हर युद्ध में पारंगत, इसलिए भयंकर युद्ध शुरू हुआ। भीमसेन युवा बर्बरीक के आगे कमजोर पड़ने लगे। बर्बरीक ने भीम को उठा लिया और समुद्र में फेंकने चल पड़े। भगवान शिव ने आकाशवाणी की- पुत्र यह महान गदाधर और तुम्हारे दादा भीम हैं। पांडव धर्मयुद्ध के लिए शक्तियां अर्जित कर रहे हैं। तुम्हारी आराध्या देवी चंडिका दर्शन को आए हैं। आकाशवाणी सुनकर बर्बरीक को बड़ा पश्चाताप हुआ। वह भीम के चरणों में गिरकर माफी मांगने लगे। भीम को प्रसन्नता हुई कि उनका पौत्र इतना बलशाली है। लेकिन बर्बरीक के मन का शोक कम नहीं हो रहा था। भीम ने कहा- श्रीकृष्ण ने हमें बताया था कि तुम इसी देवीस्थान में निवास करते हो किंतु हम यह बात भूल गए थे। मैं प्रसन्न हूं कि तुम वीर होने के साथ-साथ अत्यंत बुद्धिमान और नीतिवान भी हो। किंतु बर्बरीक का अपने पूर्वजों को अपमानित करने का शोक समाप्त नहीं हो रहा था। प्राण त्यागने के लिए समुद्र में प्रवेश कर गए। चंडिका देवी प्रकट हुई। उन्होंने बर्बरीक को रोकते हुए कहा- स्वयं भगवान विष्णु तुमसे प्राणदान मांगकर उद्धार करने को अवतरित हुए हैं। चंडिका देवी ने आशीर्वाद देते हुए कहा- पुत्र तुम चंडिकास्थान पर जिस कर्तव्यनिष्ठा के साथ सेवा कर रहे हो, तुम चंडील के नाम से भी प्रसिद्ध होगे और पूजनीय बनोगे। 
एक कथा बर्बरीक के पूर्वजन्म की भी है--
 भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से भीम के पौत्र बर्बरीक का शीश काट दिया। वहां बर्बरीक की आराध्य सिद्ध अंबिकाएं प्रकट हुईं। उन्होंने शोकग्रस्त पांडवों को सांत्वना देते हुए बर्बरीक के पूर्वजन्म की कथा सुनानी शुरू की। मूर दैत्य के अत्याचारों से पीडित पृथ्वी देवसभा में गाय के रूप में अपनी फरियाद लेकर पहुंची- “ हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ। पहाड़, नदी एवं समस्त मानवजाति का भार सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से मैं व्यथित हूँ। आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ।” गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्माजी ने कहा-“ मूर दैत्य के अत्याचारों से रक्षा के लिए हमें भगवान श्रीविष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के संकट निवारण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए।” देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा- ‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल श्रीविष्णुजी ही कर सकें। हर बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। आप लोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ।” सूर्यवर्चा की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ। तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है। स्वयं को विष्णुजी के बराबर समझने की भूल करने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा के योग्य नहीं हो। तुम अभी पृथ्वी पर जा गिरो. राक्षसकुल में जन्म लो। युद्ध के लिए आतुर यक्ष! पृथ्वी पर एक धर्मयुद्ध के आरंभ के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु तुम्हारा सिर काटेंगे। राक्षस रूप में तुम उस युद्ध से वंचित रह जाओगे। सूर्यवर्चा ब्रह्माजी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा. ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ। वह बोले- “वत्स! तूने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं शाप वापस नहीं ले सकता। लेकिन इसमें कुछ संसोधन अवश्य कर सकता हूँ। भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से तुम्हारा शीश काटेंगे। उसके बाद देवियां तुम्हारे शीश का अमृत से अभिसिंचन करेगी। जिससे तुम देवताओं के समान पूज्य हो जाओगे।” तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा- हे वीर! तुम्हारे शीश की पूजा होगी और मेरे आशीर्वाद से तुम देवरूप में पूजित होगे। अभिशाप को वरदान में बदलता देख सूर्यवर्चा प्रसन्न मन से उस देवसभा से अदृश्य हो गए। भगवान विष्णु ने पृथ्वी के उद्धार के लिए श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर मूर दैत्य का वध किया और मुरारी कहलाए। पिता के वध का समाचार पाकर मूर दैत्य की पुत्री कामकटंककटा(मोरवी) अजेय अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हो श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगी। मोरवी अपने अजेय खेटक (चंद्राकार तलवार) से भगवान के सारंग धनुष से निकलने वाले हर तीर के टुकड़े टुकड़े करने लगी। दोनों में घोर संग्राम हुआ। श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र के प्रयोग के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। ज्योंही श्रीकृष्ण ने अपना अमोघ अस्त्र हाथ में लिया, उसी समय माता कामाख्या अपनी भक्त मोरवी के रक्षार्थ वहाँ उपस्थित हो गईं। देवी ने मोरवी के भगवान श्रीकृष्ण के बारे में बताया-“ जिस महारथी से तू संग्राम कर रही है यही भगवान श्रीकृष्ण तेरे ससुर होंगे। इनकी शरणागत होकर इच्छित वरदान मांग ले।” मोरवी ने शांत होकर श्रीकृष्ण भगवान को प्रणाम कर आशीर्वाद लिया। उपस्थित लोगों को यह वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा- “मोरवीनंदन का उद्धार स्वयं भगवान ने किया है। इसलिए आपको शोक नहीं करना चाहिए।” श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुई 14 देवियों सिद्ध, अम्बिका, कपाली,तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चंडी,योगेश्वरी, त्रिलोकी और जेत्रा द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उसे देवत्व प्रदान करके अजर अमर कर दिया। नवीन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और युद्ध देखने की अनुमति मांगी। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को आशीर्वाद दिया, “हे वत्स! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित विद्यमान है। जब तक सूर्य-चन्द्रमा विद्यमान हैं,तुम तब तक पूजनीय रहोगे। तुम देवियों के स्थानों में देवियों समान विचरते रहोगे। अपने भक्तगणों में कुलदेव समान मर्यादा पाओगे। कल्याणकारी रूप में तुम भक्तों के वात-पित्त-कफ जनित रोगों का नाश करोगे। पर्वत की चोटी पर विराजमान होकर युद्ध देखो। वासुदेव श्रीकृष्ण के वरदान के बाद देवियां अन्तर्धान हो गईं। बर्बरीक जी का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं बर्बरीकजी के धड़ का शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया। श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से उनका शीश देवरूप में परिणत हो गया था। बर्बरीकजी के शीश द्वारा श्रीकृष्ण का अभिनंदन किया गया।महाभारत युद्ध की समाप्ति पर भीमसेन को अभिमान हो गया कि युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है। जबकि धनुर्धारी अर्जुन को लगता था कि महाभारत में पांडवों की जीत उनके पराक्रम से संभव हुई है। विवाद बढ़ता देख अर्जुन ने एक रास्ता सुझाया। उन्होंने कहा कि युद्ध के साक्षी वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाए कि उन्होंने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा? पांडव वीर श्रीकृष्ण के साथ वीर बर्बरीक के शीश के पास गए. उनके सामने अपनी शंका रखी। बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मुझे इस युद्ध में केवल और केवल दो ही योद्धा नजर आए जो सबके बदले युद्ध कर रहे थे। वह थे भगवान श्रीकृष्ण और सूर्यपूत्र कर्ण। अंततोगत्वा कुरुक्षेत्र में सर्वत्र नारायण श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही चलता रहा। यह युद्ध उनकी नीति के कारण ही जीता गया। बर्बरीक द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा। देवगणों ने आकाश से देवस्वरुप शीश पर पुष्पवर्षा की। भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा-“हे बर्बरीक आप कलि काल में सर्वत्र पूजित होकर अपने भक्तो के अभीष्ट कार्य पूर्ण करेंगे। आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए।आप युद्धभूमि में हम सबसे हुए अपराधों के लिए हमें क्षमा कीजिए।” हर्षोल्लास से भरी पाण्डव सेना ने पवित्र तीर्थो के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजाएं शीश के समीप लहराईं। इस दिन सभी ने महाभारत का विजयपर्व धूमधाम से मनाया। कालान्तर में वीर बर्बरीक का का शीश शालिग्राम शिला रूप में परिणत हुआ। देवत्व को प्राप्त वह शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू ग्राम में बहुत ही चमत्कारिक रूप से प्रकट हुआ। वहाँ के राजा ने मंदिर में उसकी स्थापना की। उस युग के बर्बरीक आज के युग के श्री खाटूश्याम बाबा ही हैं।  (स्कन्दपुराण के माहेश्वर खंड अंतर्गत द्वितीय उपखंड “कौमारिका खंड” की कथा) 
जय हिंद।
****🙏****✍️
शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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Comments

  1. Nicely described, I suppose you next character description may be Babarvahan.

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