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आज एक शब्द रह रह कर विचारों में आ रहा है।वो है दम्भ या दंभ। बड़ा छोटा सा शब्द है रोज मर्रा की जिंदगी में इसे देखते महसूस करते है।दम्भ महत्व दिखाने या प्रयोजन सिद्ध करने के निमित्त झूठा आडम्बर करने की आदत और कला है।अक्सर खास लोगों के पास होती है।कुछ हम सब मे होती है। जैसे कि अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझने का भाव। ये सब दम्भी होने के लक्षण हैं।आये बगाहे हमे अपने आसपास और खुद में ये गुण देखने को मिल जाते है। मैंने अपने ऊपर ही इसका शोध किया अपने लिये। थोड़ा ही कम कर पाया।ये बुरी आसुरी प्रवृति या गुण है।इसपर कुछ हद तक काबू किया। दम्भ श्री कृष्ण भी समझा गये कुछ इस तरह। गीता के सोहलवें अध्याय में।
मूल श्लोकः
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।
स्वामी रामसुखदास ने इसका मूल अर्थ कुछ ऐसे लिखा
।।16.4।।हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकका होना भी -- ये सभी आसुरीसम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
एक साधु ने इसे ऐसे लिखा
।।16.4।। हे पार्थ ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी (पारुष्य) और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।।
स्वामी चिन्मयानंद ने इसकी बेहतरीन व्यख्या की
।।16.4।। केवल एक श्लोक की परिसीमा में ही जगत् के कुरूप व्यक्तित्व के पुरुषों की कुरूपता का इतना बोधगम्य वर्णन इसके पूर्व कभी नहीं किया गया था। आसुरी प्रवृत्तियों के प्रकार अनेक हैं? परन्तु यहाँ केवल कुछ मुख्य दुर्गुणों का उल्लेख किया गया है? जिनके द्वारा हम उन समस्त आसुरी शक्तियों को समझ सकते हैं? जो कभी भी मनुष्य के हृदय में व्यक्त होकर अपना विनाशकारी प्रभाव दिखा सकती हैं। इन सबको जानने का लाभ यह होगा कि हम अपने हृदय से अवांछित प्रवृत्तियों को दूर कर सकते हैं? और इस प्रकार हमें अपने विकास के लिए एक महत् शक्ति उपलब्ध हो सकती है।
दम्भ श्री शंकाराचार्य के अनुसार -दम्भ का अर्थ है वास्तव में अधार्मिक होते हुए भी स्वयं को धार्मिक व्यक्ति के रूप में प्रकट करना। दूसरे शब्दों में स्वयं को वस्तुस्थिति से अन्यथा प्रकट करना दम्भ है। यह अत्यन्त निम्नस्तर का रूप है।जिसे पापी दुराचारी लोग धारण करते हैं। उनकी यह सतही साधुता और शुद्धता धार्मिकता और निष्कपटता वस्तुत अपने घातक उद्देश्यों और दुष्ट संकल्पों को आवृत करने के आकर्षक आवरण हैं।दर्प धन जन यौवन ज्ञान सामाजिक प्रतिष्ठा इत्यादि का अत्याधिक गर्व (दर्प) मनुष्य को एक असह्य प्रकार की उच्चता प्रदान करता है। तत्पश्चात् वह मनुष्य जगत् की घटनाओं की ओर आत्मवंचक विपरीत ज्ञान के माध्यम से देखता है और अपने ही काल्पनिक आत्मसम्मान के जगत् में रहता है। फलत: इस दर्प के कारण वह आन्तरिक शान्ति से वंचित रह जाता है। ऐसा मनुष्य अपने ही समाज के लोगों के प्रेम से निष्कासित हो जाता है। दर्प युक्त पुरुष जगत् में एकाकी रह जाता है। केवल काल्पनिक आत्मसम्मान और अपनी महानता के स्वप्न ही उसके मित्र होते हैं। उसके वैभव को केवल वही स्वयं देख पाता है और अन्य कोई नहीं। ऐसा पुरुष स्वाभाविक ही अभिमानी बन जाता है।क्रोध दम्भ दर्प और अभिमान से युक्त पुरुष जब यह पाता है कि लोगों की उसके विषय में जो धारणायें हैं और वे उसकी अपनी धारणाओं से सर्वथा भिन्न हैं तब उसका मन विद्रोह कर उठता है। जो प्रत्येक वस्तु की ओर क्रोध के रूप में प्रकट होता है। क्रोधावेश से अभिभूत ऐसे पुरुष के कर्मों और वाणी में लोगों को व्यग्र कर देने वाली कठोरता (पारुष्य) और धृष्टता का होना अनिवार्य है।उपर्युक्त दम्भ दर्प आदि का एकमात्र कारण है आत्म अज्ञान। वह न स्वयं को जानता है और न अपने आसपास की जगत् की संरचना को जानता है। परिणाम यह होता है कि वह यह नहीं समझ पाता कि उसको जगत् के साथ किस प्रकार का सुखद सम्बन्ध रखना चाहिए। सारांशत -वह नितान्त अहंकार केन्द्रित हो जाता है और वह चाहता है कि बाह्य जगत् उसकी अपेक्षाओं और इच्छाओं के अनुकूल और अनुरूप रहे। इतना ही नहीं अपितु वह अपने कार्यक्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए एक मूर्खतापूर्ण आचारसंहिता प्रस्तुत करता है और अपेक्षा करता है कि वे ठीक उसी के अनुसार व्यवहार करें। स्वयं के तथा जगत् के विषय में यह जो अज्ञान है यही वह गुप्त कारण है जिसके वशीभूत पुरुष या समाज के विरुद्ध विद्रोह कर विक्षिप्त के समान व्यवहार करता है।यह है आसुरी सम्पदा अर्थात् असुरों के गुण।
मित्रो दम्भ एक आसुरी गुण है।ये हमे भीतर से खोखला कर बेहद महत्वकांक्षी बना देता है।विवेक हर लेता है।दिमाग पर हावी होकर बस आपको मैं में ले जाता है।यहीं आपके विवेक की हत्या होती है। आप के आसपास का माहौल विषाक्त हो जाता है।इससे बचें और अपने आसपास सुखद माहौल पनपायें।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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