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इंसान अपने कर्मो से इतिहास के पन्नो में कैद हो जाता है। उसकी स्मृति चिरकाल तक स्थाई सी लगती है। वो मिटती नही। धुंदली अवश्य हो जाती है कभी कभी। मैं "अमर" शब्द की बात कर रहा हूँ।ये न मरने वाला , अविनाशी, सदा जीवित रहने वाला, शाश्वत, चिरस्थायी की संज्ञा लिए हुए है।मित्रो अमरत्व देवताओं की भी इच्छा थी और दानवों की भी। इसी के लालच में समुद्र मंथन हुआ।मगर लालच पूरा भी नही हुआ। मगर क्या वाक्य ही अमर होने की लालसा मनुष्य में होती है?होगी शायद!क्योंकि एक इंसान के जीवन की पारी पैंसठ से सत्तर साल की औसतन है और वो भी उसमें हांफ जाता है।फिर लालसा क्यों होगी?बात भी सच है आम आदमी अमर होने की लालसा नही रखता। मुक्ति की अवश्य रखता है।मगर जो बलशाली है उनके भीतर न जाने कहाँ से ये आ जाती है।वो संसार को भोगने की किर्या को अनंत की और ले जाने के लिए आतुर रहते है।मगर प्रकृति के नियम के आगे सब नतमस्तक है।और मृत्यु अपना खेल खेल ही जाती है।फिर व्यक्ति दूसरा रास्ता खोजता है। इतिहास के पन्नो में अमर होने का।इसका सबसे बड़ा उदाहरण राम और रावण है।राम उत्तम कर्मो से ईश्वर रूप में जाने गये और रावण भी आजतक हर वर्ष दशहरे पे अपने पापों का हिसाब देते देहन हो जाते है।रामायण के बाकी पात्र भी अमर हो गये। न राम रहे न रावण। मगर कथा अनंत काल के लिये अमर हो गयी। अगर पार्थ का नाम है तो दुर्योधन कोन भूलेगा। गति सब की हुई।एक पहले चले गये दूसरे अंत समय स्वर्गरोहण को हो लिये। मृत्युलोक छोड़ना ही पड़ा। ये तो पुरातन युगों से संबंधित तथ्य है। गांधी भारतवर्ष और दुनिया के अनेक देशों में क्रांति के मसीहा माने जाते है।पढ़े और पढ़ाये जाते है। अच्छे कर्मों सादे जीवन के लिए जाने जाते है।मगर हिटलर शायद पूरी दुनिया मे उनसे कही ज्यादा जाना जाता है।पीढ़ी दर पीढ़ी जर्मनी और नाज़ी कहीं न कहीं दिमाग मे घुस जाते है। वो भी किताबो में अमर है।ऐसे बहुत से व्यक्तित्व किताबो लेखों शोधों साहित्य में अमर हो गये। अब्राहम लिंकन को आज विश्व मे कोंन नही जानता! मृत्यु गोली पे लिखी थी। केनेडी और न जाने कितने आज किताबो से लेकर सोशल मीडिया में स्मृति अमरत्व पा चुके है।
कर्म इतिहास के पन्नो में बुरे अच्छे दोनों दर्ज होते है। येही तो सब देवता और दानव है जो हमारे कर्म है। मगर कर्म दोनों करने के लिए जान तो झोंकनी ही पड़ती है मेहनत भी बराबर लगती है। कुछ दिमाग आयुर्वेद में इसे ढूंढ रहे है कुछ नवीन विज्ञान के माध्यम से इसकी खोज में लगे है।मेरी सोच कर्मो के हिसाब में इसे देखती है।मैं प्रकृति के नियम मानता हूँ।बस दिमाग सकारत्मक सोच वाला है तो आप देवरूप हो प्रसिद्धि पाते है और अगर नकारत्मक हो तो दानव रूप । मेहनत कर के ये देव दानव रूपी मनुष्य इतिहास के पन्नो में अमर हो जाते है।हम आम जन है बिना शोर मचाये चित्रगुप्त को हिसाब देने पहुंच जाते है।कुछ समय अपनो की स्मृतियों में रह कही गुम हो जाते है। हम सब को एक जीवन का मोका मिला ही है तो क्यों न देवरूप में अमर होने का प्रयास किया जाये। कुछ बेहतर समाज भी बुना जाए। सकरात्मक सृजन कुछ किया जाये।
ये उम्र तो कभी अमर हो नही सकती।
क्यों न नाम ही अमर कर लिया जाए।।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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