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आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ बहुत खूबसूरत शायरी कलाम जो लिखा है मुज़्तर ख़ैराबादी ने।
कभी कभी गुनगुना लेते है।
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ।
कसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ ।।
न दवा-ए-दर्द-ए-जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं।
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ ।।
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया।
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ ।।
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ ।
कोई आ के शम्अ' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ।।
न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ ।
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ ।।
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या।
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ ।।
न मैं 'मुज़्तर' उन का हबीब हूँ न मैं 'मुज़्तर' उन का रक़ीब हूँ ।
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ।।
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