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हर व्यक्ति का अपने जीवनकाल में एक सपना होता है "अपना घर बनाने का"।
जब ये सपना पूरा होता है तो उसमे प्रथम प्रवेश का बहुत महत्व है ।हमारी सनातनी परंपरा में उसे हम गृह प्रवेश विधि के अनुसार अनुष्ठान कर देवताओं के आह्वान से पवित्र करते है।
आज ख्याल आया इसी विधि को जान लें।
घर के अधिष्ठातृ देवता है "वास्तोष्पति"।
आइए आज इसे थोड़ा जाने।
वास्तोष्पति का अर्थ है 'वास्तोः पतिः' अर्थात् घर का अधिष्ठातृ देव। वास्तोष्पति का ऋग्वेद के एक ही सूक्त में वर्णन हुआ है। यह घर की रक्षा करने वाला देवता है। गृह्य सूत्रों में गृह प्रवेश से पूर्व वास्तोष्पति देवता की स्तुति करने और उससे हमारे पापों को क्षमा करने की प्रार्थना की गई है।
जिस भूमि पर मनुष्य या प्राणी निवास करते हैं,उसे वास्तु कहा जाता है । शुभ वास्तु के रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से हानिकारक परिणाम मिलते हैं ।
वास्तु देवता वास्तोष्पति की भी एक कथा है।
मत्स्यपुराण के अनुसार प्राचीनकाल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु (पसीने की बूंदें) गिरे उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुंह फैलाये हुए था । अन्धकासुर के गणों का रक्तपान करने पर भी जब उसे तृप्ति नहीं हुई तो भूख से व्याकुल होकर वह त्रिलोकी का भक्षण करने को उद्यत हो गया । तब भगवान शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता (वास्तुपुरुष ,वास्तोष्पति) के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया इसलिए वह वास्तुदेवता या वास्तुपुरुष , वास्तोष्पति के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
देवताओं ने उसे गृह निर्माण, वैश्वदेव बलि के और पूजन- यज्ञ के समय पूजित होने का वर दिया । देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे । तालाब, कुएं और वापी खोदने, गृह व मन्दिर के निर्माण व जीर्णोद्धार में, नगर बसाने में, यज्ञ-मण्डप के निर्माण व यज्ञ आदि के समय वास्तुदेवता की पूजा का विधान है ।
वास्तु देवता का स्वरूप इस तरह वर्णित है
श्वेतं चतुर्भुजं शान्तं कुण्डलाद्यैरलंकृतम् ।
पुस्तकं चाक्षमालां च वराभयकरं परम् ।।
पितृवैश्वानरोपेतं कुटिलभ्रूपशोभितम् ।
करालवदनं चैव आजानुकरलम्बितम् ।। (मध्यमपर्व २।११।११-१२)
अर्थात्—वास्तुदेवता श्वेत वर्ण के, चार भुजा वाले, शान्तस्वरूप, और कुण्डलों से सुशोभित हैं । हाथ में पुस्तक, अक्षमाला, वरद और अभय की मुद्रा धारण किये हुए हैं । पितरों और वैश्वानर से युक्त हैं तथा उनकी भौंहें कुटिल (तिरछी) हैं । उनका मुख भयंकर है । हाथ घुटनों तक लम्बे हैं ।वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा तथा वास्तुचक्र बनाया जाता है । वास्तुचक्र अनेक प्रकार के होते हैं । अलग-अलग अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तुचक्र बनाने का विधान है।
वास्तु कलश में वास्तु देवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सब प्रकार की शान्ति व कल्याण की प्रार्थना की जाती है ।
वास्तुदेवता का मूल मन्त्र
ऋग्वेद (७।५४।१) में इस प्रकार है—
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो भवान: ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।।
अर्थात्—हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं , इस पर पूर्ण विश्वास करें और तदनन्तर हमारी स्तुति- प्रार्थनाओं को सुनकर आप हम सभी उपासकों को आधि- व्याधि से मुक्त कर दें और जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तुक्षेत्र या गृह में निवास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिवार-परिजनों के लिए कल्याणकारक हों तथा हमारे अधीनस्थ गौ, घोड़े, सभी चौपायों (वाले प्राणियों) का भी कल्याण करें ।
ये यज्ञ आपके गृह को शुद्ध तो करता ही है एक सकारात्मक ऊर्जा को घर में बनाए रखता है।अपने गृह प्रवेश को विधि पूर्वक सम्पन्न करने से ये कल्याणकारी होता है।
ये सब मानने की बाते है। जैसे "गंगा को मानो तो गंगा मां है, न मानो तो बहता पानी।"
धन्यवाद।
जी हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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