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आज चैत्र में मेघ भी उमड़ घुमड़ गरज रहे है।
झंझा की आहट से हलधर को परेशान कर रहे है।
गंदुम की फसल खेतों में लहलहा रही है।
सिट्टों में दाने भी अब पकने को बेकरार हो रहे है।
आंखों में फिर कुछ इच्छाऐं अंगड़ाई ले रही है।
जेब भी बहुत दिन हुए खाली खाली सी बोर हो रही है।
कुछ वादे कुछ इरादे ही वर्ष मेलों की तरह लग रहे है।
इक उम्मीद में मन भीतर कोतुहोल हो रहा है।
मगर ये क्या?
आज चैत्र में मेघ भी उमड़ घुमड़ गरज रहे है।
हलधर के दिल की धड़कन बढ़ा रहे है।
कुछ डर भी लग रहा है ये ओलों जो बरस रहे है।
कुछ महामारी की मार पहले ही सता रही है।
अब ये पछम की अशांति हलधर को अशांत कर रही है।
मौसम आज अचानक ठंडा हो रहा है।
दाना अचानक सिकुड़ सा गया है।
हलधर सोच रहा है है भगवान तू कहीं तो है न?
रात लंबी है झंझा हो रही है सुबह कब होगी?
इतने में मेघ और जोर गरज कर बरस रहे है।
ओले गिरा के सिट्टा भी ढा रहे है।
हलधर की आशाओं पे पानी फेर रहे है।
सरकारी अफसर को चहका रहे है।
जेब भरने का मौसम जो आ रहा है।
अढ़तिया की बांछे भी खिला रहे है ।
गीली गंदुम काली गंदुम पे काली बुद्धि दौड़ रही है।
हलधर के शिकार की योजना बन रही है।
नेता दूर खड़ा है भाई और आश्वासन दे रहा है।
हलधर की आंखों से चमक दूर हो रही है।
लगा के भगवान भी सिर्फ उनका ही हो रहा है।
हमारी तो धरती मां ही रह गई है।
आज न सही कल फिर खड़ा कर ही देगी।
हलधर में फिर जोश आता है।
ए मेघ और बरस जा और कहर ढा ओले बरसा।
मुझको पता है मेरी धरती मां मुझ पर दयालु भी बड़ी है।
आज चैत्र में मेघ भी उमड़ घुमड़ गरज रहे है।
हलधर जो अब तक डरा हुआ सहम रहा था।
मां को देखते ही फिर उसका मन हरा हुआ था।
जो होगा देखा जायेगा ऐसा कह रहा था।
कल कोन सा मरा हुआ है?
आज चैत्र में मेघ भी उमड़ घुमड़ गरज रहे है।
हलधर शांति से अब भोजन कर रहे है।
धरती मां में ही अपना भगवान पहचान रहे है।
किसी की कृपा पर अब वो नही हो रहे है।
कह रहे है!
धरतीपुत्र हू मै हलधर मेरा नाम यू ही नहीं है।
धन्यवाद।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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