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संध्या काल में उठी इक मशाल में बहुत प्रश्न है।
किसी अंधेरी सुरंग में बहुत राजनेतिक कोड़ दफन है।
घना अंधेरा है चहुं ओर सन्नाटा भी पसरा हुआ है।
कुछ अजीब से दुर्गंध भी हर और फैली हुई है।
किसकी ये लाश है जो पैरों तले तो आ रही है दिख नही रही है।
मशाल की रोशनी में कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा है।
तभी पता चला मेरा चश्मा एक सुरंग के बाहर ही छूट गया है।
इस राजनेतिक कोढ़ की दुर्गंध में सब पहचान छुप गई है।
इंसान है या जानवर इक सी बू बनी हुई है।
इस महामारी का अंदेशा बाहर उजाले में भी फैलने का डर लगने लगा है।
अब इस राजनेतिक सुरंग के भीतर बहुत दम घुटने लगा है।
पता ये चला है जो भीतर गया वो वापिस नही हुआ है।
मुझे लगता है मेरी कब्र का नंबर भी यही लिखा है।
जुर्रत मैने जो की कि इस सुरंग का पता आम आदमी के नाम लिखा है।
हसरत तो बचाने की थी ये कहां पता था नंबर अपना पहले लिखा हुआ है।
कोशिश तो फिर भी समझने की है नंबर लग भी जाए किसको इसका गिला है।
प्रश्न अभी भी यक्ष बना हुआ है..
संध्या काल में उठी इक मशाल में बहुत प्रश्न है।
किसी अंधेरी सुरंग में बहुत राजनेतिक कोड़ दफन है।
घना अंधेरा था चहुं ओर सन्नाटा भी पसरा हुआ है।
कुछ अजीब से दुर्गंध भी हर और फैली हुई है।
किसकी ये लाश है जो पैरों तले तो आ रही है दिख नही रही है।
महसूस तो हो रही है अब लगता है किसी इंसान की ही पड़ी हुई है।
धन्यवाद।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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