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आज हमारे एक खास मित्र अपने माता पिता को लेकर बहुत परेशान थे।माता पिता बहुत सदकर्मी ईश्वर में अटूट विश्वास और साफ सुथरे व्यक्तित्व के मालिक थे।शायद कभी किसी का बुरा न चाहा हो।मगर अब बुढ़ापे में आ देह बेहद कष्ट मैं थी।मित्र बहुत परेशान।दिमाग पे बोझ बड़ा लिया था।भीतर ही भीतर अपनो से और ईश्वर से क्रोध कर लिया।शायद दिमाग बोझ से दबा नकरत्मकता को बढ़ा रहा था।कोई प्रिय नही दिखता था।सब मतलबी निष्ठुर और धम्भी नज़र आते थे।लडाई का मन पूरे जोर पे था।शायद झगड़ा किया भी।प्रश्न एक ही था बार बार मेरे माता पिता की ऐसी गति क्यों?बात होतें होते ये अन्दाज़े हीँ लगते रहे बस ।येही प्रश्न मेरी तरफ बड़ा दिया गया।मेरा पहला उत्तर था उनका "प्रारब्ध" ही इसका कारण है। तो पहले प्रारब्ध की परिभाषा समझी जाये। प्रारब्ध को
काम आरंभ किया हुआ भी कहा जा सकता है या जो शुरू किया गया हो। सबसे जरूरी पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किये हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो।प्रारब्ध इसी को इंगित करता है।अपने द्वारा किये गए उक्त कर्मों का फलभोग।विशेषतह इसके दो मुख्य भेद हैं एक संचित प्रारब्ध जो पूर्व जन्मों के कर्मों के फल स्वरूप होता है; और दूसरा क्रियमान प्रारब्ध जो इस जन्म में किये हुए कर्मों के फलस्वरूप होता है।इसके सिवा अनिच्छा प्रारब्ध, परेच्छा प्रारब्ध और स्वेच्छा प्रारब्ध नाम के तीन गौण भेद भी हैं।किस्मत तकदीर भाग्य सब इसी के गुण भेद से सम्पन्न है।हम मनुष्य योनि में प्रारब्ध को आंशिक ही समझ पाते है।एक विश्वास कम है दूसरा इसके जानने वाले बहुत कम हैं।पूर्व जन्म के प्रारब्ध कर्म हमे भाग्य से भेंट करवाते है।इस जन्म किये गये कर्म हमारा भाग्य लिखवाते है।औरअंत समय हिसाब में अगर कुछ बच जाए वो आप का भाग्य स्वयं अगले जन्म के लिए लिखा जा चुका होता है।एक जन्म में किये गए सद कर्म जन्म जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति मार्ग प्रशस्त करते है या कर सकते हैं। प्रारब्ध पिछले और इस जन्म के कर्मो का मिश्रित फल है।जो प्रारब्ध को समझ गया उसका मुक्ति के मार्ग पे पहला कदम उठ गया।जैसे जैसे कर्मों में सुधार आता जाएगा आप की काया में निखार और आप वाणी में सच और स्नेह उतपन्न होगा।आप के कर्म शुद्ध होने लगेंगे। आप मुक्ति के द्वार पे कदम बढ़ाते जाओगे।शरीर को मिल रहे कष्ट उसकी देह के ही प्रारब्ध है।आत्मा शुद्धता को देख इस शरीर से मोह भंग कर लेती है।शरीर को एक दिन मिटना ही है।बेहतर ये की अपने सारे कर्मो का हिसाब कर लिया जाये और अगले जन्म केलिए इसे फिर से अपना प्रारब्ध न बना लिया जाये।इस जीर्ण होती काया और देह का शोक न किया जाये। हमारे प्रारब्ध ही हमे अपने आज के परिवार से भेंट कराते हैं।और परिवार के इस जन्म के लालन पोषण का वक़्त ही आप का इस जन्म के प्रारब्ध हो जाते है।ये सब कुछ कर्मो से जुड़ा है। भीष्म पिताहमा का बाणों की शैया पे पहुंचना और मृत्यु के लिए इंतज़ार करना उनके प्रारब्ध का हिस्सा थे।जिसका ज्ञान श्री कृष्ण ने गीता में बखूबी दिया है।भीष्म को उनके प्रारब्ध दिखा दिये। ज्ञान की बात ये है कि पहले तो इस देह के कष्टों का शोक न बनाएं।इसे बोझ न समझे।और ईसके चलते अपनो से न बिगाड़ें। ये उनके कर्म है जो उन्हें ही भोगने है।सेवा के माध्यम से आप कष्ट कम कर सकते है।परंतु भुगतान टलवा नही सकते।येही उनका प्रारब्ध है।आप अपने कर्मो से अपना प्रारब्ध लिख रहे है।अब तह आपको करना है।दोस्त हँसो खिल खिला के हँसो और खूब मन से सेवा दो येही आप के बस में है।रोना और दिमागी बोझ सब बेकार है।सब अपने कर्मों के अधीन हैं।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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🌹🙏🏼🎊🎊🎊😊🎊🎊🎊✍🏼🌹 आज एक रस्म पगड़ी में गया हमारे प्यारे गोपाल भैया की।बहुत अच्छे योगाभ्यासी थे।रोज सुबह योगा सेवा में योग की कक्षा भी लगाया करते थे।बहुत शुद्ध साफ निर्मल तबीयत के और बेहद अच्छे व्यक्तित्व के मालिक थे। उम्र रही तक़रीबन 56 साल।एक गम्भीर बीमारी ने एक जीवन असमया लील लिया।पारिवारिक संबंध है हमारे।उनके पुत्र को देख के मुझे 26 जुलाई 2009 की याद आ गयी।मेरे पिता जी की मृत्यु हुई और हमारे यहां रस्म पगड़ी तेहरवीं पे ही होती है।ये उत्तर भारत के रस्मों रिवाज का हिस्सा है।पिता के बाद घर मे ज्येष्ठ पुत्र को आधिकारिक रूप से परिवार का मुखिया बनाया जाता है।समाज के सामने और जो पगड़ी बांधी जाती है सारा समाज जो वहां उपस्थित होता है अपने स्पर्श से पगड़ी को अधिकार सौंपता है। थोड़ा संकलित ज्ञान इसपे ही हो जाये।रस्म पगड़ी - रस्म पगड़ी उत्तर भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों की एक सामाजिक रीति है, जिसका पालन हिन्दू, सिख और सभी धार्मिक समुदाय करते हैं। इस रिवाज में किसी परिवार के सब से अधिक उम्र वाले पुरुष की मृत्यु होने पर अगले सब से अधिक आयु वाले जीवित पुरुष के सर पर रस्मी तरीके से पगड़ी (जिस
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