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रूह।

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आज बेठे बेठे सोच रहा था रूह क्या है? इसका मतलब तो आम आदमी आत्मा या जीवात्मा के नाम से जानता ही है।इसका मतलब इत्र भी लिखा गया है।ये विषय का सत या सार भी कहा जाता है।इसी शब्द से रूहानी और रूहानियत निकल कर आयी है।जिसे हम आध्यत्म भी कहते हैं।रूह शब्द उर्दू की मिठास लिए हुए है।अगर हिंदी भाषा को बेहद मीठा करना है तो इसमें जरा उर्दू की मिठास मिला दिजीये फिर देखिये कमाल।इसलिए शायरी उर्दू की कायल है।खैर आगे बढ़ते है।रूह बडा ही कुदरती एहसास है।रूह आत्मा के बारे में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में बहुत खूबसूरत वर्णन किया है।ये कुछ ऐसे है।भगवान कृष्ण ने भगवद‍ गीता में कई स्थानों पर आत्मा के स्वरुपका वर्णन करते है। संकलन आपके समक्ष है।
श्री कृष्ण कहते है की –
आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न ही मरती है।यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती है और न किसी के द्वारा मारी जाता है।शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती। यह आत्मा अजन्मा,नित्य,सनातन और पुरातन है।आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता,आग नहीं जला सकती,जल न भिगो सकता है और न  गला सकता है। और वायु सुखा नही सकती ।आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है।अच्छेद्य – जिसे काटा नहीं जा सकता ,अदाह्य – जो जलाया नहीं जा सकता , अक्लेद्य – जो गीला नहीं किया जा सकता ,अशोष्य – जिसे सुखाया नहीं जा सकता ।यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाली और सनातन है।आत्मा अव्यक्त है, अचिन्त्य है और विकार रहित है।अव्यक्त– जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता ,यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है।अवध्य – जिसका वध नहीं किया जा सके।
आत्मा का स्वरुप–भगवद्‍गीता अध्याय – 2
य एनं वेत्ति हन्तारं
यश्चैनं मन्यते हतम्‌।
उभौ तौ न विजानीतो
नायं हन्ति न हन्यते॥ (2 – 19)
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है,वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती है और न किसी द्वारा मारी जाती है॥19॥
न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं
पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ (2 – 20)
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है और न मरती ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है,शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती॥20॥
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुतः॥ (2 – 23)
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते,इसको आग नहीं जला सकती,इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती॥23॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम-
अक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ (2 – 24)
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाली और सनातन है॥24॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम-
अविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं
नानुशोचितुमर्हसि॥॥ (2 – 25)
यह आत्मा अव्यक्त है,यह आत्मा अचिन्त्य है औरयह आत्मा विकार रहित कहा जाता है॥25॥
देही नित्यमवध्योऽयं
देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि
न त्वं शोचितुमर्हसि॥ (2 – 30)
हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है॥30॥
आत्मा का स्वरुप–भगवद्‍गीता अध्याय – 3
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः
परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो
बुद्धेः परतस्तु सः॥ (3 – 42)
इन्द्रिया स्थूल शरीर से पर (यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म) हैं।इन इन्द्रियों से पर (यानी श्रेष्ठ) मन है,मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥                              आत्मा का स्वरुप–भगवद्‍गीता अध्याय10
अहमात्मा गुडाकेश
सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च
भूतानामन्त एव च॥ (10 – 20)
हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥20॥
आत्मा का स्वरुप–भगवद्‍गीता अध्याय 13
उपद्रष्टानुमन्ता च
भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो
देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥ (13 – 22)
इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है।वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता,सबका धारण-पोषण करने वाली होने से भर्ता,जीवरूप से भोक्ता,ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा – ऐसा कहा गया है॥22॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि
क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं
स पश्यति॥ (13 – 29)
जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है,वही यथार्थ देखता है॥29॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं
नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे
तथात्मा नोपलिप्यते॥ (13 – 32)
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता,वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥32॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं
लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं
प्रकाशयति भारत॥ (13 – 33)
हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है,उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करती है॥33॥
आत्मा का स्वरुप–भगवद्‍गीता अध्याय  15
यतन्तो योगिनश्चैनं
पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो
नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥ (15 – 11)
यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं,
किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है,ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते॥11॥
आत्मा का स्वरुप –भगवद्‍गीता अध्याय 16
त्रिविधं नरकस्येदं
द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा
लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥ (16 – 21)
काम, क्रोध तथा लोभ – ये तीन प्रकार के नरक के द्वार(सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है)आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥
ये आत्मा या रूह का पूर्ण वर्णन गीता में कहा गया है। जिसका सार बड़ा सीधा है। बुद्धि के द्वारा प्राप्त ज्ञान से हम अपने विचारों को शुद्ध रख हर बुराई की भीड़ में भी पवित्रता को नही छोड़ते।किसी भी प्रस्थिति में हम नही डगमगाते क्योंकि जिस रूह से हमारा संबंध है वो सदा पवित्र है और संसार के हर चक्र से मुक्त ।और ये ही पवित्रता इंसानी शरीर को रूह के एहसास से पवित्र अवस्था में रखती है।ये रूहानियत हमें शालीन और बैर मुक्त रखती है।क्योंकि इसकी किसी से दुश्मनी नही।ये ही ज्ञान बौद्धिक परिपक्वता की कसौटी है।रूह से रूहानी होकर हम अपने को शुद्ध साफ  करें और रागद्वेष मैली सोच से दूर रखें । जैसे रूह का वर्णन पढ़ा गया है इससे आप कर्मशीलता को अपनाते हुए पवित्र रह नाशवान शरीर से प्रेम न कर शुद्धता अपनाते हुए कर्मशील रहे बस।बाकी सब भ्रम और माया है जो आप को डगमगाने के लिए हर वक़्त यत्नशील है और आप रूह से मिलकर उसे झुठलाते हुए कर्मशील।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
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