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जय श्री हनुमान-श्री भरत समान।एक रोचक प्रसंग।

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आज एक बहुत सुंदर प्रश्न सामने आया।भगवान राम ने हनुमान की तुलना भरत से की थी लक्ष्मण से क्यों नही?इस प्रश्न का उत्तर बहुत सरल भी है और बहुत मुश्किल भी।इस प्रश्न के कई उत्तर अलग अलग ग्रंथो में मिलते हैं।सबसे सुंदर रचना रामचरितमानस है।मैंने कुछ इसी से और इससे जुड़ी कथाओ से जानने का प्रयत्न किया है।अब इस प्रश्न को सरल नज़रिये से देखते हौ।सरल इसलिए कह सकता हूँ के श्रद्धा प्रेम भक्ति की तुलना जो उस कड़ी में सबसे ऊपर हो उससे ही की जा सकती है।जिस वक्त ये श्री राम जी ने हनुमान जी को कहा वो समय व्याकुल भाव लिए था ।लक्ष्मण जी युद्ध भूमि में मूर्छित थे।हनुमान जी संजीवनी लेकर लोटे थे।तुलसीदास जी ने बहुत सुंदर लिखा 
विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥
अर्थ- आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है। 
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
अर्थ- आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
अर्थ- आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।
भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
अर्थ- आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्‍देश्यों को सफल कराया।
लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
अर्थ- आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
अर्थ- श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।
यहाँ एक व्याकुल अधीर मन मे पनपा हर्ष।इसी हर्षित मन ने श्रद्धा प्रेम भक्ति निष्ठा को भरत के समान जाना।तुलसीदास जी भरत के सारे गुणो को हनुमान जी मे पाते है।प्रभु राम तो अवतार थे।हनुमान जी को भी जानते थे और हनुमान जी द्वारा भरत की ली गयी परीक्षा को भी।हनुमान जी भरत प्रेम श्रद्धा भक्ति देखकर जान गये थे के उनसे भी ज्यादा आगे कोई और है।राम जी ने वो जिज्ञासा बिना प्रश्न जाने ही शांत की।ये दिव्य दृष्टि थी।मगर इस बात के बहुत से पहलू और भी जुड़े है।कुछ हनुमान जी के जन्म से जुड़ी कथा भी है।उसमें से एक कथा ये है।
एक कथा के अनुसार महाराजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त जो हवि अपनी रानियों में बाँटी थी उसका एक भाग गरुड़ उठाकर ले गया और उसे उस स्थान पर गिरा दिया जहाँ अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थी। हवि खा लेने से अंजनी गर्भवती हो गई और कालांतर में उसने हनुमानजी को जन्म दिया।ये भाग कैकेयी के हिस्से का था।तो भरत और हनुमान एक ही हवि से उतपन्न हुए।
रामचरितमानस में एक प्रसंग और भी है जो प्रभु राम के मन की स्तिथि दोनो के बारे में बताता है।
ये भरत जी श्री राम और हनुमान जी के बीच हुए संवाद से जाना जा सकता है।जो कुछ इस तरह है-
एक बार प्रभु श्री राम ने हनुमान को मूर्छित घटना के  सन्दर्भ मे भैया भरत को कहा था – हे भरत ! तुम्हारी भुजा की क्षमता घन्य है । तुम्हारे बिना फल के बाण से हनुमान जी जैरो योद्धा पृथ्वीपर गिर पड़े, जिसे परास्त करने की क्षमता ब्रह्माण्ड के किसी योद्धा मे नहीं है । यह सुनकर भरत जी व्यथित होकर प्रभु के श्री चरणों को पकडकर कहने लगे- प्रभो ! उस घटना की स्मृति मे मुझे ग्लानि, हीनभावना तथा लज्जा आती है । चित्रकूट में आपने न तो अयोध्या लौटने का मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और न ही वन में मुझे साथ रहने की अनुमति दी । अयोध्या में हनुमान जी के मूर्छित होने पर वह रहस्य नहीं रहा कि आपने मेरा परित्याग क्यों किया ? आपने अपना छोटा भाई बनाकर मेरे ऊपर अपार करुणा की है, किंतु मेरी करनी रावण तथा मेघनाद की तरह है ।
सुनकर प्रभु श्रीराम चौंके और बोले – भरत ! तुम कैसी बाते करते हो ? मेघनाद और रावण से तुम्हारी क्या तुलना ? श्री भरत जी कहने लगे- प्रभो ! मेरा कहना उचित ही है । मेघनाद ने भाई लक्ष्मण जी को शक्तिपाश से मूर्छित किया था और मैंने भी लक्ष्मणके प्राणो की रक्षा करने के लिये औषधि ले जानेवाले हनुमान जी को मूर्छित किया । मै मेघनाद से भी अधिक अपराधी हूँ । रावण ने कालनेमि राक्षस भेजकर औषधि ले जानेवाले हनुमान जी का रास्ता रोकने की चेष्टा की थी, जिससे औषधि विलम्ब से पहुंचे । उसी प्रकार मैने भी हनुमान जी को बाण मारकर, उन्हे गिराकर विलंब पहुँचाया । प्रभो! आपने मेरा परित्याग कर ठीक पहचाना । पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरिमानस मे भरत जी के ये ही उद्वगार प्रकट किये 

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा । ताते नाथ संग नहिं लीन्हा । (रामचरितमानस 7।1 । 4)

श्री भरत जी के ऐसे उद्गार सुनकर प्रभु श्रीराम हनुमान जी से पूछने लगे- हनुमन्त ! भैया भरत ऐसा क्यों कह रहे है ? क्या कहना चाहते है ? श्री हनुमान जी प्रभु के श्री चरणो को पकडकर कहने लगे – भगवन् ! भैया भरत सन्त है, इनकी सन्त प्रकृति है और आपके परम भक्त हैं । मैं तो यही कहूँगा कि इनके सभी कार्य आपसे बढकर है ,अधिक महान है । जैसे –

1 – प्रभो ! आपके बाण बडे चमत्कारी है, दिव्य है तथा अमोघ है, परंतु भरत जी के पास ऐसे दो बाण है जो आपके पास भी नहीं है । भरत जी में दिव्य दृष्टि थी कि उन्होने मेरे मन मे आनेवाला भ्रम तथा अभिमान जानकर उनपर अपने एक बाण से प्रहार किया था ।
2 -भैया लक्ष्मण जी की मूर्छा दूर करने के लिए लंका से वैद्य आया, द्रोणाचल से औषधि आयी । जब मैं अयोध्या मे मूर्छित होकर गिर पडा, तब भरत जी ने अयोध्या से वैद्य बुलाकर मेरी मूर्छा दूर नहीं करायी । उन्होने तो स्वयं ही क्षणमें मेरी मूर्च्छा दूर का दी । उन्होने कहा था-यदि मन, वचन और शरीर से प्रभु के श्री चरणो में मेरा निष्कपट प्रेम हो, उनकी मेरे ऊपर कृपा हो तो यह वानर श्रम तथा शूल से रहित हो जाय । प्रभो ! आपकी भक्ति के प्रति भरत जी का इतना अधिक विश्वास था कि उनके वचनो को सुनकर मेरी मूर्छा दूर हो गयी, मैं जागकर बैठ गया ।
3 -श्री भरत जी ने मुझ से कहा था – तुम पर्वतसहित मेरे बाणपर चढ़ जाओ, मैं तुम्हे कृपाधाम प्रभु श्री रामके पास पहुंचा दूँ। प्रभो ! मुझें तो भार उठाने का कार्य दिया गया था, परंतु आपकी कृपा से मेरा भार उठाने मुझें ऐसे सन्त-भक्त भरत जी मिले।
4-प्रभो! आपके पास अग्नि, जल, पहाड आदि बरसाने वाले तथा सिर काटने वाले बाण हैँ । भरत जी के बाण-जैसा, जो ईश्वर के पास पहुँचाता – मिलाता है , आपके पास भी नहीं है । उनका एक बाण अभिमान मिटानेवाला तथा दूसरा ईश्वर से मिलानेवाला है ।
5– प्रभो ! यह सत्य है कि आपके बाण लगने से राक्षस आपमें विलीन हो गये । आपका बाण आपसे मिलाता तो है, परंतु मरने के बाद । भरत जी का बाण जीते जी आपसे मिलाता है ।
6 -आपने माता कैकेयी से प्राप्त चौदह वर्ष का वनवास तपस्वी बनकर बिताया था, जबकि आपके भक्त भरत जी ने सभी सुख सुविधाएँ त्यागकर अयोध्या से बाहर नन्दग्राम मे पर्णकुटी बनाकर पूरे चौदह वर्ष तपस्वी जीवन बिताया । वन में संसार – भोगो के आकर्षण से उदासीन बने रहना सरल है परंतु महल , संसार – भोगो के बीचो बिच रहते हुए उनसे उदासीन होना अत्यंत कठिन है ।
श्री भरत जी के प्रति श्री हनुमान जी के भावमय प्रेमोद्गार सुनकर प्रभु श्रीराम अति प्रसन्न हुए और कहने लगे -हनुमंत ! तुम्हारा कहना यथार्थ है । भरत जी के समान कोई पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है ।
सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।
(रामचरितमानस 2 । 232 । 4 )
पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ के हम दोनों भाई उनकी दो आँखे थी – मोरें भरतु रामु दुइ आँखी (रामचरितमानस 2 । 232 । 6) । गुरूदेव बता रहे थे कि चित्रकूट यात्रा में उनके आश्रम मे भैया भरत को मिलनेवाले जो भी भील ,किरात आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, सन्यासीऔर विरक्त हमारे कुशलपूर्वक देखने के समाचार कहते उनको वे हमारे समान ही प्रिय मानते –
जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम लखन सम लेखे ।। (रामचरितमानस 2 । 224। 7)
चित्रकूट यात्रा में मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी के आश्रम मे आये भरत को उन्होने कहा था कि उन्हे हमारे दर्शन के फल का महान फल संत भरत जी के दर्शन के रूप मिला ।
तेहि फलु कर फल दरस तुम्हारा ।
(रामचरितमानस 2।210 ।5)
कौशल्या माता उन्हें सदैव कुल का दीपक जानती थी, महाराज ने उनसे बारम्बार यही कहा था – जानउँ सदा भरत कुलदीपा । बार बार मोहि कहेउ महिपा ।। (रामकजरितमनस 2 । 283 । 5)
श्री हनुमान जी को कही गयी भ्रातृ-स्नेह की वाणी सुनकर भरत जी प्रभु के श्रीचरण पकडकर उनके मुख की ओर देखने लगे । प्रभु ने उन्हे उठाकर हृदय से लगाया-भैया भरत ! यह कोई स्तुति नहीं, अपितु सत्य है । अयोध्या के लोगो के मन मे दुर्गुण मेरे रहतें हुए आ गये थे, मन्थरा की लोभवृत्ति नहीं मिटी, माता कैकेैयी की बुद्धि मे मलिनता आयी तथा महाराज दशरथ के मन मे काम आया । भरत ! तुम्हारी कृपा होते हो समस्त अयोध्या वासी मेरे पास चित्रकूट पहुँचे गये । उस समय मैंने जो कहा था, वह शाश्वत सत्य है । भरत ! तुम्हारा नामस्मरण करते ही सब पाप- प्रपंच और समस्त अमंगलो के समूह मिट जायेंगे तथा इस लोक में सुन्दर यश तथा परलोक मे सुख प्राप्त होगा ।
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार ।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ।। (रामचरितमानस 2 । 263 )
ये जिज्ञासा हनुमान जी की उसी क्षण भगवान ने उनकी बराबरी भरत से की। लक्ष्मण ने भी फ़र्ज़ निभाया।त्याग प्रेम भक्ति की मूर्ति भरत थे।हनुमान जी भी राम भक्त थे रामदूत थे। सभी एक अंश थे मगर संज्ञा श्रेष्ट की ही होती है। जब हम इस प्रसंग को युद्ध स्थल में मूर्छित पड़े लक्ष्मण से और भरत के बाण पर सवार हो पहुंचे हनुमान की नज़र से देखेंगे तो उस दृश्य कृत समय के भाव को समझ जायेंगे हनुमान जी और भरत जी ने लक्ष्मण जी की प्राण रक्षा की। मैनें आप के समक्ष सारे पहलू रख दिये। जिस नज़र से भी देखने का यत्न करेंगे तुलना समझ आ जायेगी। येही भक्ति है।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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