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मेरे नाम के साथ पराशर जुड़ा है। मेरा नाम राजीव है जो कमल का ही पर्यावाची है।पराशर का भी कुछ पर्यावाची और मतलब होना चाहिये। ये रोचक जानकारी मुझे कुछ अच्छी और ले गयी। पराशर मेरा गोत्र है और माने तो ऋषि पराशर के वंशज है हम। इसलिए थोड़ा पराशर ऋषि को ही जान ले।
ऋषि पराशर के वंश ने ही महाभारत लड़ा।
व्यास जी के द्वारा बढ़ाये गये वंश में धर्म युद्ध हुआ।
चलिये ये बहुत शोध का विषय है।पहले ऋषि पराशर को ही जान लें।
महर्षि पराशर शक्ति मुनि के पुत्र एवं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी के पौत्र थे। माता का नाम अदृश्यन्ति था जो उतथ्य मुनि की पुत्री थी। महर्षि पराशर जी का जन्म अपने पिता शक्ति की मृत्यु के बाद हुआ था, तथापि गर्भावस्था में ही इन्होंने पिता द्वारा कही हुई वेद ऋचायें कंठस्थ कर ली थी।कहा ये भी जाता है वे अपनी मां के गर्भ में 12 वर्ष रहे।
महर्षि पराशर ने विद्याध्ययन अपने पितामह वशिष्ठ जी के पास रहकर अपने ही किया। वे वशिष्ठ जी को ही अपना पिता समझते थे। एक बार पराशर जी की माता जी ने पराशर से कहा पुत्र जिन्हें तुम पिता कहते हो वे वास्तव में तुम्हारे पिता नहीं पितामह हैं1 पराशर जी के पूछने पर माता अदृश्यन्ती ने समस्त जानकारी उन्हें करा दी कि किस प्रकार तुम्हारे पिता को राक्षस ने तुम्हारे जन्म से पूर्व ही मार डाला था।
पिता की मृत्यु का ज्ञान होने पर महर्षि पराशर को क्रोध आना स्वभाविक ही था। वे सोचने लगे जिसके पिता एवं पितामह का देवतागण भी सर्वश्रेष्ठ तपस्वी एवं ज्ञानी होने के कारण इतना सम्मान करे, उनका भक्षण राक्षस करे- यह सहन नहीं हो सकता। ऐसा विचार कर महर्षि पराशर जी ने एक यज्ञ का आयोजन इस विचार से किया कि मैं अपने पिता के वैर का बदला लूंगा और पृथ्वी मंडल से मानव और दानव दोनों ही कुलों को नष्ट कर दूंगा। ब्रह्मर्षि के समझाने पर ऋषि का धर्म रक्षा करना है, पराशर ने मानव जाति को तो क्षमा कर दिया, किंतु राक्षसों के विनाश के लिए यज्ञ प्रारम्भ कर दिया।
यज्ञा द्वारा राक्षस कुलों का सर्वनाश होते देखकर पुलस्त्य जी ने पराशर से अनुनय-विनय की कि आप यह यज्ञ न करें। पराशर जी पुलस्त्य मुनि का बड़ा आदर करते थे। पराशर जी ने पुलस्त्य ऋषि की बात मान ली। राक्षस संहार यज्ञ की समाप्ति के लिए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने पराशर को समझाया। वशिष्ठ जी की परपीड़ा इस कथन से कितनी परिलक्षित होती है कि मेरा वंश समाप्त होने को था, वंश समाप्ति की पीड़ा कितनी होती है मैं जानता हूं, जब शक्ति आदि मेरे पुत्रों का नाश राक्षसों ने कर दिया था। क्या अब राक्षस वंश को समाप्त कर महर्षि पुलस्त्य जी को स्थापित करना चाहते हो? पराशर जी ने अपने पितामह वशिष्ठ जी एवं अन्य महर्षियों के वचनों का आदर कर यज्ञ का विचार त्याग दिया। पुलस्त्य जी ने उन्हें आशीर्वाद के रूप में निम्न वरदान दिया--
'पुराण संहिताकर्ता भवान्वत्स भविष्यति।
देवतापारमार्थ्य च यथावद्वेत्स्यते भवान्।।
अर्थात हे वत्स पराशर, पुराणों को संहिताबद्ध कर समस्त शास्त्रों के गूढ़ तत्वों को आत्मसात कर समस्त शास्त्रों में पारंगत होवोगे।
महर्षि पराशर जी का दिव्य जीवन जहां अत्यंत अलौकिक है वहीं अद्वितीय भी। उन्होंने धर्मशास्त्र, ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, विषयक ज्ञान मानव मात्र को दिया। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ वृहत्पराशर होराशास्त्र, लघुपराशरी, वृहत्पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्तुशास्त्रम, पराशर संहिता(आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्त्र, आदि मानव मात्र के लिए कल्याणार्थ रचित ग्रन्थ जग प्रसिद्ध हैं।
अब ये पराशर नाम भी कुछ अलग है। इसका अर्थ भी शोध का विषय है।चलो जाने
'पराशर' शब्द का अर्थ है - 'पराशृणाति पापानीति पराशरः' अर्थात् जो दर्शन-स्मरण करने से ही समस्त पापों का नाश करता है, वही पराशर है।
आचार्य सायण ने पराशर शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है -
हे पराशर परागत्य शृणाति हिनस्ति शत्रुन् इति पराशर:॥१॥
अर्थात - शत्रुओं को परास्त करके उन्हें नष्ट कर देने वाले को पराशर कहते हैं।
संधि-विच्छेद -
हे + पराशर + पराग + त्य + शृणाति + हिनस्ति + शत्रुन् + इति + पराशरः
हे = सम्बोधन शब्द
पराशर = (संज्ञा) पराशर/ बड़ा नाश करने वाला(शत्रुओं का)/Crusher/Destroyer
परागत्य = पराग + त्य "= (पुं०) यशस्वी/ प्रतिष्ठित/प्रसिद्ध/ख्यातिप्राप्त/ कीर्तिप्राप्त/यश प्रदान करने वाले/ कीर्तिदायक
शृणाति = (क्रिया) नाश करना/नष्ट करना/ छिन्न-भिन्न करना/ उखाड़ फेंकना/ नश्तर देना/परास्त करना/पराभव करना
हिनस्ति = (क्रिया)अन्त करना/ नाश करना/ नष्ट करना
शत्रुन् = (विशेषण) शत्रुओं को
इति = (क्रिया विशेषण)इसलिए/ इस प्रकार/ इस कारण से
पराशरः = (संज्ञा/नाम) पराशर
अर्थात - हे यशस्वी(यश प्रदान करने वाले), कीर्तिदायक, शत्रुओं का बड़ा नाश करने वाले पराशर ! शत्रुओं को परास्त करके उन्हें नष्ट कर देने वाले को पराशर कहते हैं।
एक अन्य स्थल पर पराशर की दूसरी_व्याख्या इन शब्दों में विवेचित है-
पराशातयिता यातुनाम् इति पराशरः।... परा परितः यातूनां... रक्षसाम्। ...शातयिता विनाशकः॥३०॥(निरुक्त ६.३०)
अर्थात - जो चारों ओर से राक्षसों का विनाश करने में समर्थ हो वह #पराशर है।
परं मातुर्निमातुरनिजायायददरं तदयं यतः। ऋचमुच्चार्य निर्भिद्य निर्गात स पराशरः ।।१।।
अर्थात - यह माता के उदर से वेद ऋचाओं को बोलते हुए निकाला था, अतः इसका नाम पराशर रखा गया।
परस्य कामदेवस्य शरः सम्मोहनादयः। न विद्यन्ते यतस्तेन ऋषिरुक्तः पराशरः।।२।।
अर्थात - कामदेव के सम्मोहन, उन्मादन, शोषण, तापन, स्तम्भन, इन पांच बाणों का प्रभाव अपने पर न होने देने के यतन के कारण ऋषियों ने भी इन्हें "पराशर" ही कहा।
पराकृताः शरा यस्मात् राक्षसानां वधार्थिनाम्। अतः पराशरो नामः ऋषिरुक्तः मनीषिभिः।। पराशातयिता यातूनाम् इति पराशरः। ।।३,३१/२।।
अर्थात - वध की इच्छा रखने वाले राक्षसों के बाणों को इन्होंने परे कर दिया। अतः बुद्धिमानों ने इनका नाम "पराशर"नाम कहा।
परासुः स यतस्तेन वशिष्ठः स्थापितो मुनिः। गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ।।४।। अर्थात - उस बालक ने गर्भ में आकर परासु (मरने की इच्छा वाले ) वसिष्ठ मुनि को पुन: जीवित रहने के लिये उत्साहित किया था; इसलिये वह लोक में "पराशर" के नाम से विख्यात हुआ।
पराशृणाती पापानीति पराशर: ।।५।। अर्थात - जो दर्शन स्मरण करने मात्र से ही समस्त पाप-ताप को छिन्न-भिन्न कर देते हैं वे ही पराशर हैं।
अतः प्राण-परित्याग करने की इच्छा वाले वशिष्ठ का आधार होने के कारण, या काम-बाण प्रभावों को परास्त करने के कारण, या फिर शरों से दूर ले जाकर इनका रक्षण करने के कारण अथवा शत्रुओं का पराभव करने वाला होने के कारण इस बालक का नाम पराशर ही व्यवहार में आया। ॥
वेदों में वर्णित पराशर शाबर मंत्र
सत्यवादी मुनिश्रेष्ठ महामना पराशर के गुणों का वर्णन -
अपराजितो जितारातिः सदानन्दों दयायुतः गोपालो गोपतिर्गोप्ता कलिकालपराशरः॥५८॥
अर्थात - शत्रुओं के द्वारा अजेय, शत्रुओं को जीतने वाले, सदा आनन्दित रहने वाले, दयालु, पृथ्वी का पालन करने वाले, इंद्रियों के स्वामी, भक्तों के रक्षक कलिकाल(कलियुग) के मुनिश्रेष्ठ_पराशर अर्थात् कथा वाचकों के उत्पादक महामुनि
पराशर ।
अथर्ववेद में महर्षि पराशर का देवत्व
निर्दिष्ट है। अथर्ववेद में वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, तपोनिधि, भगवान पराशर की गणना ऋषियों में न होकर देवताओं में कई गयी है।
ऋषि- अथर्ववेद के अधिकांश सूक्तों के ऋषि 'अथर्वा'(अविचल, प्रज्ञायुक्त-स्थिरप्रज्ञ) ऋषि हैं। अन्य अनेक ऋषियों के सूक्तों के साथ भी अथर्वा का नाम संयुक्त है। जैसे अथर्वाचार्य, अथर्वाकृति, अथर्वाङ्गिरा, भृगवंगीरा ब्रह्मा आदि।
अथर्वेद में इन निम्नलिखित सभी को ऋषित्व प्राप्त है -
1.भृगु अर्थवण 2. वशिष्ठ 3.अगत्स्य 4. अंगिरा 5. अथर्वा, 6. भृगु 7. जमदग्नि, 8. कश्यप 9. कण्व, 10. विश्वामित्र ..... आदि।
अथर्वेद में निम्नलिखित सभी को देवत्व प्राप्त है -
देवता - अथर्ववेद में देवताओं की संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा दोगुनी से भी अधिक है।
1.अंश 2.अग्नि 3.अग्नाविष्णु 4. अरुंधती नामक औषधि 5. अश्विनीकुमार 6. इन्द्र 7. कश्यप 8.चंद्रमा 9.धन्वंतरि 10. पराशर
अथर्ववेद के इस मंत्र में पराशर से प्रार्थना की गई है की वे शत्रु को नष्ट करें।
अथर्ववेद -
(६५- शत्रुनाशक सूक्त)
【ऋषि - अथर्वा, देवता - पराशर, छन्द-१ पथ्यापंक्ति, २-३ अनुष्टुप】
अव मन्युरवायताव बाहू मनोयुजा।
पराशर त्वं तेषां पराञ्चम् शुष्ममर्दयाधा नो रयिमा कृधि ॥१॥
अर्थात - (शत्रु के) क्रोध एवं शस्त्रास्त्र दूर हों। शत्रुओं की भुजाएं अशक्त एवं मन साहसहीन हों। हे दूर से ही शर-संधान में निपुण देव (पराशर)! आप उन शत्रुओं के बल को परांगमुख करके नष्ट करें तथा उनके धन हमें प्रदान करें।
अंत मे
हे पराशर परागत्य शृणाति हिनस्ति शत्रुन् इति पराशर:॥१॥
ये ही पराशर शब्द की कीर्ति है।
कलयुग में भी इंसान के कर्म को पराशर स्मृति में समझा गये कुछ इस तरह..
पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है, जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा पर बल दिया गया है। कहते हैं कि, एक बार ऋषियों ने कलियुग योग्य धर्मों को समझाने की व्यास से प्रार्थना की। व्यासजी ने अपने पिता पराशर से इसके संबंध में पूछना उचित समझा। अतः वे मुनियों को लेकर बदरिकाश्रम में पराशर के पास गये। पराशर ने समझाया कि कलियुग में लोगों की शारीरिक शक्ति कम होती है, इसलिए तपस्या, ज्ञान-संपादन, यज्ञ आदि सहज साध्य नहीं हैं। इसलिए कलिकाल में दान रूप धर्म की महत्ता है।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमित्यूचुर्दानमेकं कलौयुगे॥
कलियुग में पराशर प्रोक्त धर्म को विशेष मान्यता प्राप्त हुई है। कहा गया है कि -
कृतेतु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
द्वापरे शंखलिखितः कलौ पराशरः स्मृतः॥ (पराशर स्मृति 1.24)
अर्थात् सत्ययुग में मनु द्वारा प्रोक्त धर्म मुख्य था, त्रेता में गौतम की महत्ता थी। द्वापर में शंख-लिखित मुनियों द्वारा कहे गये धर्म की प्रतिष्ठा थी। पर कलिकाल में पराशर से निर्दिष्ट धर्म की प्रतिष्ठा है। पराशर मुनि अहिंसा को परमाधिक महत्त्व देते हैं। पराशरस्मृति में गोमाता कोे न केवल अवध्य, अपि तु पूजनीय भी कहा गया है। वैसे ही वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का विशद वर्णन उनके स्मृति ग्रंथ में है। ग्रंथ के अन्त में योग पर ज़ोर दिया गया है। पराशर ने आयुर्वेद एवं ज्योतिष पर भी अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
ये युग मे दान किसी भी रूप में हो कल्याणकारी है। येही पराशर ऋषि की सबसे बड़ी शिक्षा है।अन्न धन विद्या क्षमा शांति सब दान ही है। पराशर का अर्थ नाम से बहुत बड़ा है।मैं अभी बस समझने में हूँ और जो समझ आया बांटने में लगा हूँ।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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