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भाषा- समाज का आईना।

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काफी समय से लिखने से मन दूर दूर सा है। ऐसे समय आते रहते है जब जीवन मे अल्पकालिक विराम आते है। ये कई तरह के संतुलन बरकरार कर देते है। विश्राम भी दे देते है। आज एक भाषा पे प्रोग्राम देखते देखते मन बन ही गया। सोचा कुछ भाषा पे ही लिखा जाये।गणेश देवी जी इसके बहुत अच्छे ज्ञाता है। उनके अध्यन से निकले तर्कों ने काफी प्रभावित किया। भाषा यू तो अपने दिमाग मे पनपते विचार, जरूरते और मनोस्तिथि को समझाने का साधन है। ये मौखिक है ये सांकेतिक है और ये लिखित है जो आप पढ़ रहे है।इसपे बहुत शोध आपको मिल जायेंगे। भाषा किसी भी समाज या इंसान का दर्पण या आईना है। भाषा से हम किसी समाज या मनुष्य को कुछ ही क्षणों में समझ सकते है। भाषा स्वत् हमारी तस्वीर सामने वाले के सामने गढ़ देता है। सभ्य ज्ञानी व्यक्ति धीर गम्भीर तोल मोल समझ से आसान बोलने वाले होते है। ऐसा समझा जाता है।मगर चतुर चालाक धोखेबाज़ कपटी भी ऐसा वर्ण धारण कर लेते है मगर ये अल्पकालिक ही होता है।मौखिक भाषा को सांकेतिक भाषा शुद्ध रूप में प्रगट करती रहती है। इसके लिए आप गंभीर होकर चेहरे पे चलती सांकेतिक भाषा को पढ़ेंगे तो आप  सही गलत का भेद क्षणभर में जान जाएंगे। ज्ञानी सभ्य व्यक्ति क्रोध में भी भाषा का स्तर नही गिराता।भाषा के स्तर को बनाये रखता है। भाषा को समाज और मनुष्य का आइना बताया मुझे इसमे कभी कोई संदेह नही रहा। उत्तम भाषा का सम्मान सभी करते है।इससे आपको सम्मान प्रसिद्धि का अवसर सदा मिलता रहता है। और ये समाज के समृद्ध होने का भी घोतक होती है। शिष्टचार सदा पनपता है। जिस भी समाज मे भाषा का स्तर उच्च है वो सदा ही सम्मानीय रहता है। मौखिक मानसिक आज़ादी रहती है। डर नही होता। आपस मे आत्मीयता बनी रहती है।घर पड़ोस दोस्त मित्र रिश्तेदारों में एक खास इज़्ज़त झलकती है। सब समृद्धि की और अग्रसर रहते है।अब बारी आती है जब भाषा का स्तर किसी समाज या मनुष्य में गिरता नज़र आता है तो ये बड़ी गिरावट होती है। इन्सान समाज के मानसिक स्तर में गिरावट महसूस होती है। उग्रता बढ़ने लगती है। कटुता घर करती है।द्वेष हावी रहता है। भटकाव पैदा होता है। गाली गलौच में इजाफा महसूस कर सकते हो। आज जे समय मे ट्रोल राक्षस कुछ ऐसा ही दर्शा रहा है  । सोचने समझने की काबलियत कम होने लगती है। जल्दी बहुत होती है। आक्रमकता कुछ अलग ही नकारत्मक रंग लेने लगती है। समाज या मनुष्य प्रबुद्घ नही रहता। बड़ी गिरावट आती है। सहनशीलता का बड़ा ह्रास होता है। समाज या मनुष्य हिंसक होने लगता गया समाज की और समाजों में सामाजिक प्रतिष्ठा गिरती है। सामाजिक संतुलन बिगड़ता है। लोकतांत्रिक वैचारिक उन्मुक्त भावनाये डर में छुपने लगती है। ये ही वो समय है जब भाषा अपना रूप तो खो देती है और करूपता ओढ़ लेती है असभ्य कहलाने लगती है। मगर इस दौरान भी सभ्य भाषा दबती कभी नही। भाषा सिकुड़ जाती है। संवाद बहुत कम रह जाता है। ये भाषा के स्तर इतिहास काल से व्यवस्थाओं को धाराशाही करता आया है। मगर किसी सभ्य भाषा को न मिटा सकें न मार सके। भाषा अपने स्थान पर तटस्थ रही।अंत मे भाषा को मारने वाली व्यवस्थाएं ही धाराशाही हुई। संवाद की स्थापना फिर से हुई। हर समाज मे ये दोनों पहलू भाषा के सदा मौजूद रहते है। सभ्य समाज उत्तम भाषा से लबरेज रहता है और असभ्य समाज निम्न भाषा से भरा। जिसका बोलबाला ज्यादा होगा आपकी पहचान उसीकी होगी। उत्तम उच्च भाषा सदैव आदरणीय रहती है। निम्न भाषा सिर्फ नफरत द्वेष लाती है। उत्तम उच्च भाषा आप के ज्ञानी होने का घोतक है।निम्न अज्ञानी होने का। उत्तम उच्च भाषा आपके विचारों की स्वतंत्रता का परिणाम है ।निम्न भाषा आपकी वैचारिक संकीर्णता की निशानी। उत्तम उच्च भाषा प्रेम पनपाती है निम्न क्रोध द्वेष। बेहतर सभ्य समाज ही बेहतर राष्ट्र का निर्णाण करता है और उसे स्थाई समृद्धि देने में सक्षम भी। निम्नता की और फिसलता समाज बेहतर राष्ट को भी और व्यवस्थाओं को भी खत्म करने में सक्षम होता है।
हमे अपनी भाषा का उत्तम ज्ञान बेहतर शब्दों का इस्तेमाल आना चाहिए । व्यवहारिक भाषा का स्तर बनाये रखना चाहिए। बच्चों में ये सहज होता है बचपन से ही मर्यादित भाषा का व्यवहारिक ज्ञान हमे अपनी पीढ़ी को देना चाहिए। ये राष्ट्र का बेहतर भविष्य सहेजने की कुंजी है।आशा करता हूँ शब्दो को उत्तम रख भाषा उत्तम करेंगे और करवाएंगे।
जय हिंद
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शुभ रात्रि

प्रणाम-"निर्गुणी"
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