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जन्म मरण हमारे जीवन का हिस्सा है। जो पृथ्वी पर जन्मे हर प्राणी के लिये सत्य है। मनुष्य का जन्म पृथ्वी पे हर्ष का विषय है।ये एक उल्ल्हास लेकर आता है। और ये जन्म पृथ्वी पे मौजूद सब प्राणियों से उत्तम है।हर प्राणी मनुष्य के अतिरिक्त एक सीमित बौद्धिक क्षमता का मालिक है। इसी के चलते जीवन भी सीमित दायरे में ही पूरा होता है।इसलिए मेरा अपने लिये मानना है के मैं अपने जन्म को हर वर्ष एक हर्ष के साथ उत्सव रूप में देखता हूँ। इस संसार मे आने और उसे भोगने के लिये मन से अगर ईश्वर है तो उसका धन्यवाद करता हूँ।ये संसार बेहद खूबसूरत है। इसके भीतर असंख्य खूबसूरत प्राकृतिक गणनाएं और संरचनाएं है। जिसे जानने की उत्सुकता मुझे अपने मनुष्य रूप में जन्म लेने का मकसद समझाती है। हर प्राणी का समाज है। तो हमारा भी है। मैंने जम्बू दीप में जन्म लिया है।तो मुझे सनातन धर्म से जोड़ कर देखा जाता है। कुछ सभ्यताएं हमे हिंदुकुश के माध्यम से हिन्दू समाज के रूप में भी जानती है। हम गर्व से कह सकते है हम हिन्दू है। पौराणिक काल से जीवन जे गूढ़ को समझ कर हमारे ऋषि मुनियों ने इसे विभिन्न संस्कारों के रूप में देखा। जहां हमारी उम्र के हिसाब से जीवन नियम बनाये गये और उन्हें जश्न का रूप दे समाज को सिखाये गये। सर्वप्रथम हम चालीस संस्कारों में अपना जीवन जीते थे जो अब समय के साथ सोलह में ही रह गया है।मगर आज के समाज मे शायद चार या पांच संस्कार ही मनाये जाते है।प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी जैसा आपको पहले बताया। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का इस पृथ्वी रूपी दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है।येही हमारे शेष बचे संस्कार कुछ सनातन धर्म परिवारों में शिद्दत से अभी भी मनाये जाते है।इसी में हमारे समाज का जीवन कर्म चलता नज़र आता है। हम व्यापक रूप से मनुष्य को उसके सधे जीवन की नियमावली के साथ इन संस्कारों में देख पाते है। अगर मनुष्य अपने जीवन मे पूर्ण आयु को प्राप्त कर अपने सभी कार्यों और जिम्मेदारियों से निवृत हो मृत्यु को प्राप्त करता है तो ये भी बड़ा जश्न होता है। जन्म के उपरांत हमारा सामना संसार मे बिखरी प्राकृती से होता है। यहां मनुष्य अपने जीवन मे घटी घटनाओं और परस्थितियों के बीच फस कर संसार की खूबसूरती को भूल अपने को अहम द्वेष घृणा अतिवादिता में झोंक देता है।संसार और मनुष्य में रची बसी खूबसूरती न देख अपने मे सिमट जाता है।मगर फिर भी हमारे धर्म मे विदित संस्कार उसे जश्न मनवाकर अपनी और इस प्रकृति की याद दिलाते है। मगर ये आंखें खुलती कहाँ है? सोचा सबको याद दिला दूं।जन्म का जश्न तो साल में एक बार मनेगा जीवन का जश्न तो हम रोज मना सकते है हर पल मना सकते है।आप भी सोचिये और हर पल लम्हे को जीईये।जश्न मनाईये।
जय हिंद
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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