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हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञ का बहुत महत्व है।जन्म से मरण के साथ इसे हर ईश्वरीय कर्म से जोड़ा गया है।आर्य सामजियों का तो दिन ही इससे शुरू होता है।आइये आज की आनंद चर्चा भगवान विष्णु का यज्ञ अवतार पे हो जाये।
वायु पुराण के अनुसार यज्ञ अवतार भगवान विष्णु के सातवें अवतार है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई। आकूति और प्रजापति रूचि के जुड़वाँ मिथुन संतानें हुईं। पुत्र यज्ञ जो भगवान विष्णु के यज्ञ नाम से अवतरित हुए। और कन्या हुईं दक्षिणा। मनु जी ने विवाह से पहले ही यह वचन लिया था कि प्रथम पुत्र उन्हें गोद दे दिया जाएगा क्योंकि वे जानते थे कि पुत्र नारायण का अवतार होंगे। इस वचन के अनुसार मनु ने यज्ञ को अपने पुत्र के रूप में गोद ले लिया। यज्ञ विष्णु रूप एवं दक्षिणा लक्ष्मी रूपा थी। इन दोनों का आपस में विवाह हुआ। इन्हीं के कारण से सृष्टि में सर्वप्रथम यज्ञों की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इन यज्ञों के कारण देवताओं की शक्ति बढ़ने लगी साथ-साथ देवताओं की शक्ति बढ़ने से सारी सृष्टि शक्शिाली हो गयी। एक समय आया जब स्वायम्भुव मनु को धीरे-धीरे समस्त सांसारिक विषय-भोगों से सर्वथा अरूचि होने लगी। संसार से विरक्त हो जाने के कारण उन्होंने पृथ्वी का राज्य त्याग दिया और अपनी महिमामयी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने लिए वन चले गये। पवित्र सुनन्दा नदी के तट पर एक पैर पर खड़े होकर मंत्रों का जप करने लगे। इस प्राकर स्तुति एवं जप करते हुए सौ वर्ष तक अत्यन्त कठोर तप किया। उसी समय भूख से पीड़ित राक्षसों का दल वहाँ एकत्रित हो गया और उन्होंने ध्यानमग्न तपस्वी मनु और शतरूपा को खाने के लिए दौड़े। मनु और शतरूपा के पौत्र आकूतिनन्दन भगवान यज्ञ ने अपनी शक्तियों से दोनों को रक्षा घेरे में लिया और शीघ्र अपने याम पुत्रों के साथ वहाँ पहुँचे। उनका राक्षसों से भयानक संग्राम हुआ समस्त राक्षसों अपने प्राण बचाकर वहाँ से भाग निकले। भगवान यज्ञ को देखकर देवताओं में अत्यन्त प्रसन्न हुए उन्होंने उनसे देवेन्द्र पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। भगवान यज्ञ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके इन्द्रासन पर विराजित हुए। भगवान यज्ञ और उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाये।
दक्षिणा की उत्पत्ति की एक कथा ये भी है -गोलोक में भगवान कृष्ण को सुशीला नामक गोपी बहुत पसंद थी। वह उसकी विद्या, रुप और गुणों से प्रभावित थे। सुशीला राधाजी की ही सखी थी इसलिए श्रीकृष्ण द्वारा सुशीला को पसंद करने की बात राधा को पसंद नही थी। एक दिन उन्होंने सुशीला को गोलोक से बाहर कर दिया। इस बात से सुशीला को बहुत दुख हुआ और वो कठिन तप करने लगी इस तप से वो विष्णुप्रिया महालक्ष्मी के शरीर में प्रवेश कर गईं।
अब जानिये क्यों दक्षिणा के बिना यज्ञ पूरा नहीं होता ? इसके बाद से विष्णु जी द्वारा देवताओं को यज्ञ का फल मिलना रुक गया इस समस्या का निवारण के लिए सभी देवता ब्रह्माजी के पास गए। तब ब्रह्माजी जी ने भगवान विष्णु जी का ध्यान किया। विष्णु जी ने सभी देवताओं की बात मानकर इसका एक हल निकाला। उन्होंने अपनी प्रिय महालक्ष्मी के अंश से एक मर्त्यलक्ष्मी को बनाया जिसे नाम दिया दक्षिणा और इसे ब्रह्माजी को सौंप दिया। ब्रह्माजी ने दक्षिणा का विवाह यज्ञपुरुष के साथ कर दिया बाद में इन दोनों का पुत्र हुआ जिसे नाम दिया फल इस प्रकार भगवान यज्ञ अपनी पत्नी दक्षिणा और पुत्र फल से सम्पन्न होने पर सभी को कर्मों का फल देने लगे। इससे देवताओं को भी यज्ञ का फल मिलने लगा। इसी वजह से शास्त्रों में दक्षिणा के बिना यज्ञ पूरा नहीं होता और कोई फल नहीं मिलता। इसीलिए ऐसा माना गया कि यज्ञ करने वाले को तभी फल मिलता है जब वह दक्षिणा देगा।
मित्रो कथा का सार यही है की दक्षिणा दान आप के सब कर्मो में श्रेष्ठ बनाता है और आप शुभ फल के भागीदार होते है।ये आनंद चर्चा है। इसे चर्चा की तरह ही लें जो न समझ आये पढ़ कर भूलने का प्रयत्न करें।
जय हिंद।
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सुप्रभात।
"निर्गुणी"
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