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कार्तिक माह विशेष- पृथु अवतार।

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भगवान विष्णु जे चौबीस अवतारों में से  नौवाँ अवतार है आदिराज पृथु अवतार  । धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ।उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ।उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा। तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है।  वेन के अंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओ तथा पाँव में कमल चिन्ह था |हाथ में चक्र का चिन्ह था | वे विष्णु भगवान के ही अंश थे | ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया | उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी और प्रजा भूखो मर रही थी | प्रजा का करुण क्रन्दन सुनकर राजा पृथु अति दुखी हुयी | जब उन्हें मालुम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न ,औषधि आदि को अपने उदर में छुपा लिया है तो वह धनुष बाण लेकर पृथ्वी को मारन के लिए दौड़ पड़े | पृथ्वी ने जब देखा कि अब उनकी रक्षा कोई नही कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आयी | जीवनदान की याचिका करती हुयी वह बोली “मुझे मारकर अपनी प्रजा को सिर्फ जल पर ही कैसे जीवित रख पाओगे ?”|पृथु ने कहा “स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए “| पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा “मेरा दोह्न करके आप सब कुछ प्राप्त करे | आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा | मेरी सम्पूर्ण सम्पदा दुराचारी चोर लुट रहे थे इसलिए मैंने वह सामग्रीया अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है मुझे आप समतल बना दीजिये “|राजा पृथु संतुष्ट हुए | उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया और स्वयं अपने हाथो से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन धान्य प्राप्त किया | फिर देवताओं और महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति , अमृत , सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुए प्राप्त की | पृथ्वी के दोहन से विपुल सम्पति एमव धन धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया | पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयम पिता की भांति प्रजाजनों के कल्याण एवं पालन पोषण का कर्तव्य पूरा किया |राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किये | स्वयं भगवान यज्ञेश्वर उन यज्ञो में आये और साथ ही सब देवता भी आये | पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को इर्ष्या हुयी | उनको संदेह हुआ कि कही राजा पृथु इन्द्रपुरी न प्राप्त कर ले | उन्होंने सौवे यज्ञ का घोडा चुरा लिया | जब इंद्र घोडा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्री ऋषि ने उन्हें देख लिया | उन्होंने राजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा । राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया | पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया | इंद्र ने वेश बदल रखा था |पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागने वाला जटाजूट एवं भस्म लगाये हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त नही समझा | वह लौट आया तब अत्रि मुनि ने उसे पुनः पकड़ने के लिए भेजा | फिर से पीछा करते हुए पृथु कुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वही छोडकर अंतर्धयान हो गये | पृथु कुमार अश्व को यज्ञशाला में आये | सभी ने उनके पराक्रम की प्रशंशा की। अश्व को पशुशाळा में बाँध दिया गया | इंद्र ने छिप कर पुनः अश्व को चुरा लिया | अत्रि ऋषि ने जब देखा तो पृथु कुमार को बताया | पृथु कुमार ने इंद्र को बाण का लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गये | इंद्र के षड्यंत्र का पता जब पृथु को चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया | ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा “आप वर्ती है आप किसी का भी वध नही कर सकते है लेकिन हम मन्त्र द्वारा इंद्र को हवन कुण्ड में भस्म किये देते है। " यह कहकर ऋषियों ने मन्त्र से इंद्र का आह्वान किया | वे आहुति डालना ही चाहते थे कि वहा ब्रह्मा प्रकट हुए | उन्होंने सबको रोक दिया | उन्होंने पृथु से कहा “तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा का अंश हो | तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो | इन यज्ञो की क्या आवश्यकता है ? तुम्हारा यह सौवा यज्ञ पूर्ण नही हुआ है इसकी चिंता मत करो | यज्ञ को रोक दो | इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है उसका नाश करो ” |भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञ शाळा में प्रकट हुए | उन्होंने पृथु से कहा “मै तुम पर प्रसन्न हु | यज्ञ में विघ्न डालने वाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो | राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है तुम तत्वज्ञानी हो | भगवत प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते है | तुम मेरे परमभक्त हो तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांग लो “|
राजा पृथु भगवान के प्रिय वचनों से प्रसन्न थे | इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े | पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया | राजा पृथु ने भगवान से कहा “भगवान ! सांसारिक भोगो का वरदान मुझे नही चाहिए यदि आप देना ही चाहते है तो मुझे सहस्त्र कान दिजीये जिससे आपका कीर्तन ,कथा एवं गुणानुवाद हजारो कानो से श्रवण करता रहूँ इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए ।भगवान श्री हरी ने कहा “राजन ! तुम्हारी अविचल भक्ति से मै अभिभूत हूँ तुम धर्म से प्रजा का पालन करो |  राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया | राजा पृथु की जब अवस्था ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य भार सौंप कर पत्नी अर्ची के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश लिया | अंत में तप के प्रभाव से चित्त स्थिर करके उन्होंने देह को त्याग कर दिया | उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्ची पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गयी | दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ |
नारायण नारायण।
जय हिंद
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सुप्रभात।
"निर्गुणी"
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