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बड़ी पुरानी बात है। मै अमरनाथ जी की यात्रा पे था। पहलगाम की तरफ से चढ़ाई की। एक घोड़ा भी किया। मगर शायद पिस्सू टॉप को छोड़ उसकी सवारी ज्यादा नही की। मगर यात्रा के दौरान घोड़े के मालिक से चलते चलते अच्छी दोस्ती हुई। इसी दौरान बहुत बातें हुईं। एक खास कहवा भी पिया। मैंने बातों बातों में एक प्रश्न किया कि ये घोड़े इतने शक्तिशाली कैसे होते है?कम हवा और अधिक वजन उठा के खूब चल लेते है। बात ही बात में उसने बताया ये घोड़े हिमालय के घांस के मैदानों में चरते है। वहां मिलने वाली दुर्लभ घोड़ा घांस नामक बूटी खाते है। उसने काफी बातें बताई। जो आप नीचे पढ़ेंगे। दर्शन भी कराये।मैंने उसकी तलाश उत्तराखण्ड से नेपाल तक की। मगर नाम मे ही फर्क था। बहुत तलाशने के बाद उसका असली नाम पता चला। ये सोने से भी बेशकीमती है।शायद पैंसठ लाख रुपया किलो। ये है यारसा गम्बू, यारसा गुम्बा या कीड़ाजड़ी, वानस्पतिक नाम कोर्डीसेप्स साइनेन्सिस (Cordyceps Synesis) मौस उच्च हिमालय की पहाडि़यों पर गर्मी के मौसम में पायी जाने वाली एक औषधीय वनस्पति है। यारसा गम्बू, यारसा गुम्बा या कीड़ाजड़ी, मुख्य रूप से उच्च हिमालयी क्षेत्रों के बर्फ से ढके हुए इलाकों में 3000 से 4000 मीटर की ऊंचाई पर या उससे ऊपर के हिम शिखरों की तलहटीके घास के मैदानों (बुग्यालों ) में पाया जाता है। कीड़ाजड़ी मुख्यतया लद्दाख, हिमाचल, सिक्किम, उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र, तिब्बत, नेपाल, भूटान, अरुणाचल एवं चीन के सिचुवान, किंधाई, जिझांग आदि प्रांतों में प्रमुखता से पायी जाती है।
यारसा गम्बू या कीड़ाजड़ी एक फंगस पैरासाइट है जो हैपिलस फैब्रिकस (Hapilus fabricus) कीट के लारवा में पैदा होती है और जिसकी उत्पत्ति गर्मी के मौसम में होती है। यह कीट कैटरपिलर सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में उगने वाली कुछ खास किस्म की घास पर ह़ी पैदा होते हैं और उन्ही पर अपना लगभग 6 माह का जीवनचक्र पूरा करते हैं। इन्ही कीट कैटरपिलरों (Caterpillar) को एक परजीवी कवक कॉर्डिसेप्स सिनेन्सिस (Cordyceps Synesis) हमला कर धीरे-धीरे मारकर मिट्टी के लगभग २ इंच नीचे दबा देती है। कुछ समय बीतने के बाद इसी मरे हुए कैटरपिलर का उपभोग कर अपना जीवन यापन करते हुए उसके पिछले हिस्से से यह फंगस पल्लवित होता रहता है। समय बीतने के साथ धीरे-धीरे यह एक छोटे से पौधे का रुप ले लेता है जिसे यारसा गम्बू या कीड़ाजड़ी कहा जाता है।
इस प्रकार यारसा गम्बू या कीड़ाजड़ी एक ऐसा कवकीय पौधा है जो मृत कीट-लार्वा और फंगस का संयोग होता है। यह आधा पौधा और आधा कीट होता है क्योंकि यह एक परजीवी फंगस है जो सीधे-सीधे मिट्टी में नहीं उग सकता है। जिस कारण यह कैटरपिलर लार्वा के ऊपर उगती है। जब हिम बुग्याल क्षेत्रों में बर्फ पिघलने लगती है तो यह पनपना शुरू हो जाती है। इसका रंग भूरा या नारंगी लाल और लंबाई लगभग 2 से 3 इंच के बीच में होती हैं लेकिन अपवाद रूप में इसके एक फीट लंबी तक मिलने के दावे किये गए हैं। सामान्यत: इसका वजन आकार के अनुसार करीब 5 ग्राम से 9 ग्राम के बीच या थोड़ा ज्यादा भी हो सकता है।
यारसा गुम्बा एक तिब्बती भाषा का शब्द है जिसमें यारसा का मतलब गर्मियों का कीड़ा और गुम्बा का अर्थ गर्मियों का पौधा होता है। अंग्रेजी में इसे कैटरपिलर फंगस (Caterpillar Fungus) या हिमालयन वियाग्रा (Himalayan Viagra) के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड राज्य में यारसा गम्बू या कीड़ाजड़ी चमोली, उत्तरकाशी तथा पिथौरागढ़ जनपद के उच्च हिमालई क्षेत्रों में पायी जाती है। कुमाऊँ अंचल के पिथौरागढ़ जिले के धारचूला, मुनस्यारी विकास खंडों में दारमा, व्यांस, जोहार, चौदांस क्षेत्रों में यह सर्वाधिक पाया जाता है। मुनस्यारी क्षेत्र में यह पंचचूली, नागिनीधुरा, नामिक, छिपलाकोट आदि क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
गर्मियों के मई-जून महीने में बर्फ कम होने पर स्थानीय लोग इस वनस्पति की खोज में उच्च हिमालयी बुग्यालों में खोद-खोद कर इस जड़ी को इक्कट्ठा करके लाते हैं। उच्च हिमालयी बुग्यालों में इस जड़ी की तलाश करना आसान नहीं होती है क्योंकि ये नरम घास के बिल्कुल अंदर छुपा होता है और बड़ी कठिनाई से ही पहचाना जा सकता है। इसको वही ज्यादा प्राप्त कर सकता है जिसकी निगाहें तेज़ हो और जो इसकी पहचान तुरंत कर सके।
भारत में यारसा गंबू की जानकारी कुछ दशकों पूर्व ही हुयी है जो उच्च हिमालयी क्षेत्र के निवासियों को तिब्बती लामाओं द्वारा दी गई। इसके इतिहास के बारे में माना जाता है कि इसकी खोज तिब्बत में लगभग 1500 वर्ष पूर्व वहां के चरवाहों द्वारा की गई थी। गर्मियों में जब ये चरवाहे अपने खच्चरों व याकों के साथ उच्च हिमालयी क्षेत्रों के घास के मैदानों में पशुओं को घास चराने हेतु जाते थे तो उनको अनुभव हुआ कि एक विशेष समय (जून–जुलाई माह) में ये जानवर एक विशेष प्रकार की घास को खाकर कुछ अधिक सक्रिय व ऊर्जावान हो जाते थे।
इसके बाद धीरे-धीरे चरवाहों की दिलचस्पी इस वनस्पति के बारे में बढ़ गई और फिर उन्होंने इसके बारे में वैद्यों को बताया। तब वहां में चिकित्सकों ने फंगस के मनुष्यों पर प्रयोग करने शुरू किये जिसके सकारात्मक परिणाम आये और यारसा गम्बू के औषधीय गुणों की पहचान हो पाई। बाद में यारसा गम्बू के औषधीय गुणों को देखते हुए तत्कालीन मिंग साम्राज्य के राजवैद्य ने इससे एक शक्तिशाली अर्क बनाने का तरीका ढूंढ लिया जिससे वो कई रोगों का इलाज करते थे।
बीबीसी वेबसाइट के अनुसार ये करामाती जड़ी सुर्खियों में न आती, अगर इसकी तलाश को लेकर हाल के समय में मारामारी न मचती और ये सबसे पहले हुआ स्टुअटगार्ड विश्व चैंपियनशिप में 1500 मीटर, तीन हज़ार मीटर और दस हज़ार मीटर वर्ग में चीन की महिला एथलीटों के रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन के बाद। उनकी ट्रेनर मा जुनरेन ने पत्रकारों को बयान दिया था कि उन्हें यारशागुंबा का नियमित रूप से सेवन कराया गया है। वनस्पतिशास्त्री डॉक्टर ए.एन. शुक्ला कहते हैं, “इस फंगस में प्रोटीन, पेपटाइड्स, अमीनो एसिड, विटामिन बी-1, बी-2 और बी-12 जैसे पोषक तत्व बहुतायत में पाए जाते हैं। ये तत्काल रूप में ताक़त देते हैं और खिलाड़ियों का जो डोपिंग टेस्ट किया जाता है उसमें ये पकड़ा नहीं जाता।
यारसा गम्बू को विभिन्न औषधियों के निर्माण हेतु प्रयोग में लाया जा सकता है क्योंकि इसमें विटामिन बी12, मेनिटाॅल, काॅर्डिसेपिक अम्ल, इरगोस्टीराॅल तथा काॅर्डिसेपिन 3′ डीआक्सीएडेनोसीन (C10H13N5O3) आदि पाया जाता हैं। माना जाता है की यारसा गम्बू में सबसे अधिक काॅर्डिसेपिन 3′ डीआक्सीएडेनोसीन 25 से 35% तक पाया जाता है। इसके अलावा इसमें प्रोटीन, विटामिन, एसिड़ की भरपूर मात्रा पाई जाती है जिस कारण इसको शक्तिवर्धक औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। कुछ चिकित्सा विशेषज्ञ इसे वियाग्रा के एक प्राकृतिक विकल्प भी मानते हैं।
यारसा गम्बू के औषधीय उपयोग भी खूब होता है।
यारसा गम्बू का प्रयोग कई रोगों को दूर करने में एक औषधि के रूप में काफी कारगर होता है।
औषधि के रूप में यारसा गम्बू का प्रयोग एक यौन शक्तिवर्धक औषधि में रूप में अधिक प्रचलित है। माना जाता है कि यह शारीरिक शक्ति को बढ़ाता है और पुरुषों में यौनशक्ति बढ़ाने कारगर है और नपुंसकता को भी दूर करता है।
यारसा गम्बू का प्रयोग जुकाम, खांसी में राहत देता है तथा दमा के उपचार में भी यह उपयोगी माना जाता है।
यारसा गम्बू मनुष्य की स्मरण शक्ति को बढ़ाता है और दिमाग को तरोताजा रखता है। साथ ही इसका प्रयोग तनाव को दूर करने में भी उपयोगी पाया गया है।
यारसा गम्बू में एंटी-एजिंग गुण पाए जाने के कारण यह व्यक्ति को युवा व ऊर्जावान बनाए रखता है तथा बुढ़ापे को बढ़ने से रोकता है। साथ ही एक औषधि के रूप में यह हमारी शारीरिक क्षमता को बढ़ाता है।
यह शरीर में कोलेस्ट्रॉल व ब्लड प्रेशर को कम करता है तथा मनुष्य के रोग प्रतिरोधक क्षमता को ठीक करता है।
चिकित्सकों के अनुसार यारसा गम्बू औषधि के रूप में हेपेटाइटिस बी, मधुमेह, कर्करोग(cancer) का उपचार करने में भी सहायक होता है।
विशेषज्ञों के अनुसार यह सांस की बीमारी, गुर्दे के विकारों को रोकने में सहायक होता है और फेफड़े, अस्थमा, किडनी की बीमारियों को दूर भगाने में मदद करता है।
यारसा गम्बू का प्रयोग टूटी हड्डियों को तुरंत जोड़ने के लिए सहायक होता है तथा हड्डियों को मजबूती भी प्रदान करता है। यह गठिया, वात को दूर करने में भी सहायक होता है।
पिछले कुछ दशकों से मौसम में बदलाव के कारण औसत तापमान में वृद्धि हुई है जिसका असर यारसा गम्बू के प्राप्ति स्थल सिकुड़ते जा रहे हैं। दूसरी ओर इसकी कीमत अवैध अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 50-65 लाख रुपए किलो तक है। वन माफिया और तस्करों द्वारा अत्यधिक दोहन से भी यारसा गुम्बा का अस्तित्व अब खतरे में आ गया है। मुनाफे की होड़ में उसका दोहन कीड़ा जड़ी के परिपक्व होने से पहले ही कर लिया जाता है। इस समय तक इसमें बीज का निर्माण नहीं हुआ होता जिस कारण बीज हवा में बिखर नहीं पाता है। फलस्वरूप लार्वा पर फफूंद के पनपने का नया चक्र शुरू ही नहीं हो पाता है। वन अनुसंधान केंद्र ने जोशीमठ क्षेत्र में अपने शोध में पाया है कि हाल के सालों में इसकी उपलब्धता में 30 फीसदी तक की कमी देखी गयी है। आईयूसीएन ने खतरा जताते हुए इसे संकट ग्रस्त प्रजातियों में शामिल कर ‘रेड लिस्ट’ में डाल दिया है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नाम के चर्चित जर्नल में छपी एक रिपोर्ट में कीड़ा जड़ी के बारे में कहा गया है, यह दुनिया की सबसे कीमती जैविक वस्तु है, जो इसे एकत्रित करने वाले हजारों लोगों के लिए आय का अहम स्रोत है। उत्तराखंड, नेपाल और तिब्बत में एक बड़ी आबादी बरसात के दो महीनों में इसे खोजने निकलती है। अब तक यह कहा जाता रहा है कि कीड़ाजड़ी के उत्पादन में यह कमी इसके अत्यधिक दोहन से हो रही है। लेकिन शोधकर्ताओं द्वारा जब पुराने आंकड़े खंगाले गए और मौसम और तापमान से जुड़े बदलावों पर गौर किया तो इसके बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि भले ही अब कीड़ा जड़ी का दोहन कम भी कर दिया जाए तो भी जलवायु परिवर्तन के चलते इसका उत्पादन कम ही होगा।
ये बेशकीमती है। इसका उत्पादन अब प्रयोगशालाओं में भी होता है। जो के 20 लाख से 25 लाख रुपए किलो में बिकती है।
बहुत ही असाधारण औषधि है। हिमालय की गोद मे बहुत प्रकृति के राज छुपे है। अनुसंधान होते रहते है। मेरा जानने का शौक है। और जानकारी साझा करने का। आशा करता हूँ आपके काम आयेगी।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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