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काफी समय हुआ जब मैं पहली बार औंकारेश्वर की यात्रा पे गया । वहां नर्मदा पे पुल के किनारे एक व्यक्ति बड़ा सा पेड़ का तना रखे बैठा था। ऐसा मुझे लगा। चौंकिए मत मेरे साथ ऐसा ही हुआ। उसे छील छील कर पांच रुपया में बेच रहा था। मैं खाने पीने का शौकीन और जिज्ञासु तो हूँ ही। मैंने भी लिया। गन्ने के रस जैसा स्वाद मगर हल्का मीठा था। मैंने पूछा भाई क्या है ये। बोला "रामकन्द"। रामकन्द ओह। इसका नाम कैसे पड़ा ये? बातें बहुत की उससे बस आप को प्रश्न ही बता रहा हूँ। बोला भगवान राम इसे बनवास काल मे खाया करते थे। उनकी ही खोज थी। सो उनके नाम पे ही पड़ गया। ये तो पता है उन्होंने कन्द मूल खाकर बहुत वक़्त जंगलों में गुजारा। तो ये संभव लगा।अगली कुछ यात्राओं में भी खाया।
अब बारी आती है इसपे शोध की। एक बात जान लीजिए भारत मे इसपे शोध भी कम हुए है और लेख भी। ये बहुत से नामो से भारत के बड़े हिस्से में पाया जाता है। गोआ में तो उगाया भी खूब जाता है।चलो और गहरा गोता लगाते है।
1980 में, भारत की वनस्पति विज्ञानियों ने इसके पहचान को एक चुनौती के रूप में लिया था । वे जनता के मदद से इस विशाल जड़ों की पहचान करना चाहते थे । लेकिन उनके सभी प्रयास बेकार में चला गया। लगभग 10 साल पहले, कोल्हापुर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग , शिवजी महाविद्यालय ने डी एन ए फिंगर प्रिंटिंग के सहारा से इस की पहचानक्र एक चौंकाने वाला निष्कर्ष के साथ सामने आया था। जिसके अनुसार पिछले कुछ वर्षों में, विक्रेताओं रामकन्द या रामबांस अगेव (agave )अमेरिका की एक किस्म की वनस्पति को बेचते है । और वह एकबीजपत्री पौधा होने से जमीन के ऊपर मिलता है ।
आगावे अमेरिकाना (Agave Americana) कई आसवन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाले अगेव में से एक है। किण्वित के बाद, यह पेय पल्क ( pulque ) पैदा करता है। मैक्सिको की टकीला उत्पादक क्षेत्रों में, के इस प्रकार के मेज़कल्स बुलाया जाता है ।रामबांस आसवन के उच्च शराब उत्पाद को मेज़काल कहा जाता है।
जो में रामकन्द खा रहा था उससे दुनिया का महंगा शराब उत्पाद बनता है। मगर ये बहुत से औषधीय गुण भी लिये है। आइये और जाने।
इसका वानस्पतिक नाम : Agave americana Linn. (अगेव अमेरिकाना)
Syn-Aloe americana (Linn.) Crantz
कुल : Agavaceae (एगावेसी)
अंग्रेज़ी नाम : Century Plant (सेन्चुरी प्लांट)
संस्कृत-कण्टल, कालकण्टल, कालकण्टक; हिन्दी-वनकेवरा, रामबास; उड़िया-बृहोतोकुमारी
;कन्नड़-भूटटेले कालानारू कोंकणी-रेडोनोस्सी
गुजराती-जंगली कुँवर , केतकी , तमिल-अन्नेईकथाली ,अलागाइ ( तैलुगु-रक्षिमा तालु , कित्थानारा , कित्तानारा
बंगाली-जंगली एनानाश , बनकेओरा , बिलातीएनाराश
नेपाली-केटुकी
मराठी-घायल , रकसपत्ता , घामपात मलयालम-पनम्कट्टा , एरोप्पाककाइता
मणिपुरी-केवा
अंग्रेजी-अमेरिकन अगेव , अमेरिकन एलो
अरबी-सेउब्बारा
परिचय
यह पौधा समस्त भारत के शुष्क वन्य भागों में साधारणतया खुले स्थानों एवं सड़कों के किनारे पाया जाता है। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों का प्रयोग रस्सी बनाने के लिए करते हैं। रामबाँस की एक प्रजाति से निकलने वाले कन्द को कई स्थानों पर लोग कन्दमूल के नाम से बेचते हैं। इसका पौधा प्रकन्दयुक्त होता है।इसके पत्र मोटे, अग्रभाग पर नुकीलें, बड़े तथा किनारों पर कांटो से युक्त होते हैं। इसके पत्र देखने में घृतकुमारी के पत्रों जैसे किन्तु उससे बड़े, मोटे व कठोर होते हैं। इसके पुष्प श्वेत अथवा पीताभ-हरित वर्ण के होते हैं।
उपरोक्त वर्णित मुख्य प्रजाति के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रजातियों का प्रयोग भी चिकित्सा में किया जाता है।Agave angustifolia Haw. (पाण्डर पर्णिका)- यह भारत के हिमालयी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है। कई स्थानों पर शोभनीय पौधे के रूप में लगाया जाता है। यह बहुवर्षायु पौधा होता है, इसके पत्ते सीधे, दोनों सिरों पर पतले, किनारों पर कटे हुए तथा चक्करदार क्रम में व्यवस्थित होती है। इस पौधे में सैपोजेनिन पाया जाता है तथा सैपोनिन, कार्टीसोन ड्रग्स का स्रोत होता है। इस पौधे का प्रयोग संधिवात, ज्वर, गृधसी, त्वक्विकार तथा अनूर्जता जन्य विकारों की चिकित्सा में किया जाता है।
Agave sisalana Perrine (दामपर्णी, रज्जुपर्णिका)- यह बहुवर्षायु, मध्यमाकार शाकीय क्षुप है। इसका काण्ड छोटा होता है। इसके पत्र गहरे हरे रंग के, मोटे, मांसल तथा शूक रहित होते है। ये पत्र चक्करदार क्रम में व्यवस्थित होते है। इसके काण्ड तथा पत्र में रेशे प्राप्त होते है। अत कई स्थानों पर इसकी खेती की जाती है। इसका प्रयोग सन्धिवात, ज्वर तथा त्वचा विकारों में चिकित्सा में किया जाता है।आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव रामबाँस, विरेचक, पूयरोधी तथा शोथहर होता है।
इसकी मूल मूत्रल, फिरङ्ग रोगरोधी तथा स्वेदजनन होती है।
इसके पत्र विरेचक, मूत्रल तथा पूयरोधी होते हैं।
कर्णशूल-1-2 बूँद रामबाँस पत्र-स्वरस को कान में डालने से कर्णशूल का शमन होता है।
उदर-विकार-रामबाँस पत्र-क्वाथ (10-15 मिली) या स्वरस (5 मिली) का सेवन करने से उदर-विकारों का शमन होता है।
रामबाँस पत्र तथा पुष्प को उबालकर बफारा देने से शोथ में लाभ होता है।
मूत्रकृच्छ्र-5 मिली रामबाँस पत्र-स्वरस का सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र में लाभ होता है।
उपदंश-रामबाँस पत्र-स्वरस का लेप करने से उपंदश में लाभ होता है।
रामबाँस के पत्रों का क्वाथ बनाकर तथा फिटकरी मिलाकर योनि का प्रक्षालन करने से योनिदाह, योनिकण्डू तथा योनिदौर्गन्ध्य का शमन होता है।
रोमकूपशोथ-रामबाँस पत्र को पीसकर लगाने से रोमकूपशोथ, दाह, शोथ तथा अन्य त्वक् विकारों का शमन होता है।
रामबाँस के पत्र-स्वरस में सिरस तथा नीम पत्र-स्वरस मिलाकर घाव को धोने से घाव का शोधन तथा रोपण होता है।
5 मिली रामबाँस पत्रस्वरस में समभाग नीम पत्र-स्वरस मिलाकर सेवन करने से फिरंङ्ग में लाभ होता है।
रामबाँस के पत्रों को बीच से फाड़कर हल्का गर्म कर शोथ में बाँधने से लाभ होता है।
आदिवासी क्षेत्रों में कंदमूल के नाम इसकी दूसरी प्रजाति के कच्चे कंद को काटकर रंग करके बाजारों में बेचा जाता है। हमने गहन अन्वेषण तथा परीक्षण करने के बाद इस गोपनीयता का पता लगाया। इस प्रजाति के कन्दों का प्रयोग दुर्बलता तथा तृष्णा नाशक होता है। अत रामबाँस का कन्द भी दुर्बलता में लाभकारी हो सकता है। यह परीक्षणीय विषय है। अत्यधिक मात्रा में यह वमनकारक होता है, अत इसका आन्तरिक प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
इस वर्ग जे पौधे के ओषधीय गुण और इसके सेवन के तरीके हमने जान लिये है।
भगवान के नाम से रामकन्द का सेवन करें। अमेरिका मेक्सिको गोआ में इसका टकीला शॉट लगाएं। रामदेव जी के यहां औषधि वनाये। आप पे छोड़ा। रात्रि में बेहतर नींद पायें।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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