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मनुष्य के जीवन में शिक्षा एक अहम किरदार अदा करती है । इसकी निरंतरता आप को परपक्व बनाती है।यह आप को एक बेहतर इंसान बनने में मददगार होती है।यह आप के आसपास ही फलती फूलती प्रकृति के रूप में सब ज्ञान संजोए रहती है और आप को मुफ्त में ज्ञान देती रहती है। उसे समझने की आवश्यकता होती है बस। जैसे की...
मनुष्यों को उल्लू के समान अन्धकार में रहने वाला नहीं होना चाहिए, कुत्ते के समान क्रोधी और सजातीय से जलने वाला नहीं होना चाहिए, हंस के समान कामी नहीं होना चाहिए, गरुड़ के समान घमण्डी नहीं होना चाहिए, गिद्ध के समान लालची नहीं होना चाहिए। ये कुछ सांकेतिक दुर्व्यसन है। और ये दुर्व्यसन मनोरोग की नींव हैं। इनसे मनुष्य में हीन भावना और ईर्ष्या ,जलन भी उत्पन्न हो जाती है। इसे और बेहतर तरीके से प्रकृति हमे फिर समझाती है।
जिस प्रकार से वन में लगी आग पहले वन को ही नष्ट कर देती है। उसी प्रकार ईर्ष्या रूपी अग्नि मनुष्य को अंदर से भस्म कर देती हैं।
जिस प्रकार से वर्षा रूपी जल वन की अग्नि को समाप्त कर देता है उसी प्रकार से विवेकरूपी जल ईर्ष्या को समाप्त कर देता हैं।
मित्रो किताबी शिक्षा लेते रहें और अपने आसपास प्रकृति की सीख को भी अपने जीवन में शिक्षा का साधन समझे। और इसका उपयोग अपने को विकारों से दूर रखने का रास्ता समझे। प्रकृति के समीप जाकर इसे और बेहतर ढंग से समझें।अब अगर आपने अपने मनोविकारों पे काबू पा लिया तो समझाए आंतरिक सुख आपका है। यही सबसे सुखद अनुभव है।
धन्यवाद।
जी हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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Wow, so nicely explained, i am very much impressed. Specially बन मे लगी आग ......
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