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रंगो के त्यौहार पूरी दुनिया में सदियों से किसी न किसी रूप में मनाये जाते है।हमारे देश में भी वैदिक काल से होली का उत्सव मनाया जाता है।बचपन से ही ये त्यौहार अपनी और जीवन रंगो संग मुझे आकर्षित करता रहा है। जब जेब तंग थी तो पिचकारी भाती थी और जो भाती थी वो हाथ नही आती थी। खैर थोड़े बड़े हुए । कुछ इससे जुड़ी बेहतरीन हिन्दी फिल्में देखी। उनमें से एक थी "फागुन" जो 1973 में बनी थी। धर्मेंद्र और वहीदा रहमान , जय भादुड़ी और विजय अरोड़ा जिसमे कलाकार थे।पुरानी 1958 में बनी थी। मगर इसका एक गाना मुझे बेहद पसंद है। जो मैं समझता हूं होली पे फिल्माया गाया सबसे बेहतरीन गाना है। उसके बोल है
"पिया संग खेलो होली, फागुन आयो रे।
चुनरिया भिगो ले गोरी, फागुन आयो रे।
देखो जिस और मच रहा शोर
गली में अबीर उड़े, हवा में गुलाल।
कहीं कोई हाय, तन को चुराये
चली जाये देती गारी, पोंछे जाये गाल।
करे कोई जोरा-जोरी फागुन आयो रे।
कोई कहे सजनी, सुनो पुकार
बरस बाद आये तोहरे द्वार।
आज तो मोरी गेंदे की कली
होली के बहाने मिलो एक बार।
तन पे है रंग, मन पे है रंग
किसी मतवारे ने क्या रंग दियो डाल।
फुलवा के पार गोरी तोरे गाल
नैनों में गुलाबी डोरे, मुख पे बहार।
भीगी सारी, भीगी चोली, फागुन आयो रे"
और मैं आज भी इससे बेहतर गाना नहीं देख सुन पाया हूं। ये मेरे निजी विचार है।
अब आइए थोड़ा इन रंगो से जुड़ी कुछ जानकारी ले लें।
होली का त्यौहार देशभर में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। होली क्यों मनाई जाती है ?और कब मनाई जाती है? इस सब से भलीभांति जब परिचित हैं।शायद? होली की शुरुआत के बारे में प्राचीन गाथाएं भी सभी ने सुनी हैं, लेकिन बहुत कम लोग ही होली के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं। इस त्यौहार के कई वैज्ञानिक महत्व भी हैं। इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, (परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।)
यथा :-"तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष)
अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।(भाव प्रकाश)
अर्थात् :-1- तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं।
यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
2- होलिका-किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं- जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूं, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूं, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) है। यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता।
जब चना, मटर, गेहूं व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूं, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।
3- अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) आदि करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है।
यथा- वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे।
इन नवान्न बालियों को प्रज्वलित अग्नि में भूनने की यह यज्ञीय परंपरा अति प्राचीन है, वैदिक ऋचाएं भी यही कहती हैं। पौरोहित्य ग्रन्थों में होली को ‘यवाग्रयन यज्ञ’ नाम से संबोधित किया गया है। वैदिक काल में नवसस्येष्टी यज्ञ ने ही कालान्तर लोक परम्परा में होलिकोत्सव का रूप ले लिया।
“गिरा च श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमेयात्।“
सूत्र से जहां ऋग्वेद इस नवान्न महोत्सव की प्राचीनता को वर्णित करता है, वहीं भविष्यपुराण होली को हास्य-विनोद का पर्व बतलाता है-नानारंग मर्येर्वस्त्रैश्चंदनागरु मिश्रितैः अबीरं च गुलालं च मुखे ताम्बूल मसतम्।
वशोत्थं, जलमंत्रं च धर्म मंत्रं करैघृतम्।। करैघृतम्
गालिदानं तथा हास्य ललनार्त्तनं स्फुटम्।।
इससे स्पष्ट है कि होली सदियों से भारतीय जनमानस में रची-बसी है और यह प्रतिवर्ष लोक जीवन की जड़ता को तोड़कर नवीनता, नवउल्लास, उमंग लाने का माध्यम मनता रहा। यह मंत्र इसी संदेश को देते हुए कहता है कि होलिकोत्सव को मनाने के लिए भांति-भांति के सुन्दर व रंगीन वस्त्र पहनें। अबीर, गुलाल, चन्दन एक-दूसरे को लगाएं। हाथों में बांस की पिचकारियों लेकर एक-दूसरे के घर जाएं और उनपर रंग डालें। नर-नारी सभी इस हास्यविनोद के पर्व में शामिल हों। आप भी होली जम के मनाए।होली के बहुत से रूप है हमारे देश में। मैने शायद एक ही पहलू पे आज प्रकाश डाला है।
धन्यवाद।
जय हिंद।
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शुभ रात्रि।
"निर्गुणी"
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